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अब दो श्लोकों द्वारा व्युत्सर्ग में ध्यान करने की विधि बताते हैं:
जिनेन्द्रमुद्रया गाथां ध्यायेत प्रीतिविकस्वरे । हृत्पङ्कजे प्रवेश्यान्तनिरुध्य मनसानिलम् ॥ २२ ॥ पृथग द्विद्येकगाथाशचिन्तान्ते रेचयेच्छनैः।
नवकृत्वः प्रयोक्तैवं दहत्यंहः सुधीर्महत ॥ २३ ॥ युग्मम् । व्युत्सर्गके समय साधुओंको अपनी प्राणवायु मनके साथ २ भीतर प्रविष्ट करके आनन्दसे विकसित हुए हृदय कमरमें रोककर जिनेन्द्र मद्राके द्वारा " णमोअरिहंताणं "-प्रभृति गाथाका ध्यान करना चाहिये । तथा गाथाके दो दो और एक अंशका क्रमसे पृथक् २ चिन्तवन करके अन्तमें उस प्राणवायुका धीरे २ रेचन करना चाहियेमाणवायुको पाहर निकालना चाहिये । इस प्रकार अपनी दृष्टिको अन्तरङ्गकी तरफ लगाकर नी वार प्राणायामका प्रयोग करनेवाला संयमी चिरकाल के संचित महान् पापकर्माको भी भस्म कर देता है। भावार्थ-प्राणायामका महत्व अत्यन्त अधिक है । जैसा कि कहा भी है कि
शनैः शनर्मनोऽजस्रं वितन्द्रः सह वायुना। प्रवेश्य हृदयाम्मोजकर्णिकायां नियन्त्रयेत् ।। विकल्पा न प्रसूयन्ते विषयाशा निवतते ।। अन्तः स्फुरति विज्ञानं तत्र चित्ते स्थिरीकृते ॥ स्थिरीभवन्ति चेतांसि प्राणायामावलम्बिनाम् । जगवृत्तं च नि:शेषं प्रत्यक्षमिव जायते ॥ स्मरगरलमनोविजयं समस्तरोगक्षयं वपुःस्थैर्यम् । पवनप्रचारचतुरः करोति योगी न संदेहः ।।
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बाधाय