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अनगार
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मध्याय
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चाहिये । तदनन्तर दर्शन स्तोत्रका पाठ करते हुए - अर्थात् अद्याभवत्सफलता नयनद्वयस्य देव त्वदीय चरणाम्बुज वीक्षणेन " इत्यादि भगवान्के दर्शन विषयक स्तोत्रका अथवा सम्यक्त्वको उत्पन्न व पुष्ट करनेवाले " दृष्टं जिनेन्द्रभवनं भवतापहारि" इत्यादि सामान्यसे किसी भी स्तोत्रका उच्चारण करते हुए वन्दनामुद्रा के द्वारा ईयपथ शुद्धि करनी चाहिये । अर्थात् मार्गमें चलने से जीवोंकी बिराधना आदि दोष जो संभव है उनका पडिकामाभि आदि दण्डक के द्वारा शोधन करना चाहिये । इसके बाद इच्छामि इत्यादि दण्डकका उच्चारण करके निन्दा गहरूप आलोचना करनी चाहिये । पुनः धर्माचार्य के समक्ष और यदि गुरु-धर्माचार्य उपस्थित न हों तो भगवान के ही सामने पंचाङ्ग नमस्कार - एक शिर दो हाथ और दो घोंटू इन पांच अंगो को भले प्रकार नम्रीभूत करके कर्तव्य कर्मको स्वीकार करना चाहिये । अर्थात् देववन्दना या प्रतिक्रमण जो कुछ करना हो उसकी नमोस्तु भगवन् ! देव वन्दनां करिष्यामि - हे भगवन् नमस्कार हो अब मैं देववन्दना करूंगा, यह कहकर अथवा " नमोस्तु भगवन् प्रतिक्रमणं करिष्यामि - हे भगवन् नमस्कार हो अब मैं प्रतिक्रमण करूंगा " यह कहकर कर्तव्य की प्रतिज्ञा करनी चाहिये | इसके बाद पर्यङ्कासन से बैठकर जिनेद्र भगवान् के गुणों को प्रकट करनेवाले “सिद्धं सम्पूर्ण मव्यार्थम् " इत्यादि स्तोत्रका पाठ करना चाहिये । पुनः " खम्मामि सब्वजीवाणं " इत्यादि सूत्रपाठ के द्वारा साम्यभाव-समायिकको प्राप्त होना चाहिये । पुनः वन्दना क्रियाका विज्ञापन करके खडे होकर शरीरको नम्रीभूत बनाकर दोनों हाथोंकी मुक्ताशुक्ति मुद्रा बनाकर उससे तीन आवर्त और एकशिरोनति करके " णमो अरहंताणं " इत्यादि सामायिक दण्डकका पाठ करना चाहिये। तथा पाठ पूर्ण होनेपर अन्तमें भी आदिकी तरह तीन आवर्त और एक शिरोनति करनी चाहिये । इस प्रकार सामायिक दण्डकका पाठ आवर्त और शिरोनति के साथ २ पूर्ण होनेपर व्युत्सर्ग धारण करना चाहिये । शरीरमें ममत्वभावका सर्वथा परित्याग करना चाहिये । "भावार्थ - यहां पर देववन्दनासे लेकर व्युत्सर्ग पर्यन्त जो क्रियाएं जिस क्रमसे बताई हैं उनको उसी क्रमसे करना चाहिये । इनके द्रव्य और भावरूप भेदों का स्वरूप पहले बता चुके हैं। तथा वन्दनामुद्रमुक्तमुद्रा पर्यकासनका भी स्वरूप पहले लिख चुके हैं। तदनुसार ही उनको करना चाहिये ।
१- अध्याय ८ श्लोक ८५-८६-८७
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