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अनगर
धम.
एक अंशका विभाग करके उनका पृथक् २ चिन्तवन करना चाहिये । अर्थात पहले भागमें णमो अरहताण णमो सिद्धाणं इन दो पदोंका और दूसरे भागमें णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणं इन दो पदोंका तथा तीसरे भागमें णमो लोए सव्वसाहूणं इस एक पदका ध्यान करना चाहिये । इसके अनंतर आनंदसे प्रफुल्लित हृदय कमलमें मनके साथ रुकी हुई प्राण वायुका धीरे धीरे रेचन करना चाहिये । इस तरह कमसे कम नौवार प्रयोग करना चाहिये। कमसे कम इस नौवारकी क्रियासे ही संयमियोंके महान् पापका क्षय होजाता है। ... जो इस प्राणायामके द्वारा ध्यान करनेमें असमर्थ हैं वे पासका कोई भी आदमी न सुन सके इस तरहसे उक्त पंचनमस्कार मंत्रका वचन द्वारा भी जप कर सकते हैं, इसी बात को बताते हैं। किंतु इसके साथ ही यह भी दिखाते हैं कि इस वाचनिक जपके द्वारा तथा उक्त मानसिक जप-ध्यानके द्वारा जो पुण्यका संचय होता है उसमें कितना अंतर है।
वाचाप्युपांशु व्युत्सर्गे कार्यों जप्यः स वाचिकः ।
पुण्यं शतगुणं चैतः सहस्रगुणमावहेत ॥ २४ ॥ उक्त व्युत्सर्ग-कायोत्सर्गके समय जो साधु पूर्वोक्त प्राणायामके करनेमें असमर्थ हैं वे सम्पूर्ण पापोंका क्षय करनेमें समर्थ पंचनमस्कार महामंत्रका वचन द्वारा जप कर सकते हैं । किंतु यह जप स्वयं अपनी ही समझमें आवे उसको दूसरा कोई न सुनसके इस तरहसे करना चाहिये । परन्तु यह बात भी समझलेनी चाहिये कि इन दोनों ही जपोंके फलमें बहुत बडा अन्तर है । अर्थात् दण्डकोंका पाठोच्चारण करनेसे जितना पुण्यका संचय होता
उससे सौगुणा पुण्य इस वाचनिक जप करनेसे होता है । किन्तु उक्त मानसिक जप करनेसे हजारगुणा पुण्यका संचय हुआ करता है। जैसा कि कहा मी कि:
वचसा वा मनसा वा कार्यो जप्यः समाहितस्वान्तः ।
शतगुणमाये पुण्यं सहस्रगुणितं द्वितीये तु ॥ अर्थात् साधुओंको एक चित्त होकर पंचनमस्कार मंत्रका जप वचन अथवा मन दोनों से किसीके भी
बध्याय
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