________________
बनगार
८६३
कृतिकर्मके छह अंगोमें पहला जो स्वाधीनता बताया था उसके अर्थका व्यतिरेक मुखसे समर्थन करते हैं
नित्यं नारकवहीनः पराधीनस्तदेष न ।
क्रमते लौकिके प्यर्थे किमङ्गास्मिन्नलौकिके ॥ १६ ॥ पराधीन जीव हमेशा ही दीन बना रहता है । दुःखमय अवस्थाका निरंतर अनुभव करते रहने के कारण उसको नारकियों के समानही समझना चाहिये । इसी लिये लोकमें भी यह कहावत प्रसिद्ध है कि "कोनरकः? परवशता"। अर्थात् किसी ने पूछा कि नरक किसको समझना चाहिये तो उत्तर देनेवालेने कहा कि पराधीनताको। भावार्थ-परतन्त्रता जीवको नारकीके समान दीन बना देती है । इस दीनताके कारण ही वह लौकिक कार्य-अपने चलने फिरने उठने बैठते स्नान भोजन आदि कार्योंको भी अच्छी तरह स्वतन्त्रता और उत्साहके साथ सम्पादित नहीं कर सकता । जब लौकिक कार्योंको भी मलेप्रकार निर्विघ्न सिद्ध नहीं कर सकता, तब मित्र ? अलौकिक कार्योंके विषयमें तो कहना ही क्या । अर्थात् सर्वज्ञदेवके आराधन प्रभृति कृतिकर्मका वह अप्रतिहतरूपसे कभी पालन नहीं कर सकता । इसी लिये लोकमें भी यह उक्ति प्रसिद्ध है कि:
परार्थानुष्ठाने श्लथयति नृपं स्वार्थपरता, परित्यक्तस्वार्थो नियतमयथार्थः क्षितिपतिः । परार्थश्चेत्स्वार्थादमिमततरो हन्त परवान्, .
परायत्तः प्रीतेः कथमिव रसं वेत्ति पुरुषः॥ - अर्थात् पराधीन रहनेवाला मनुष्य किसी भी तरह सुखका अनुभव नहीं कर सकता। मावार्थ-जिस प्रकार लौकिक कार्योंके लिये स्वाधीनताकी आवश्यकता है उसी प्रकार या उससे भी अधिक अलौकिक-लोकोत्तर चैत्यवंदना प्रभृति कार्योंको करनेकेलिये मी स्वाधीनताकी आवश्यकता है।
___अब चौदह पद्योंमें देव वन्दना आदि क्रियाओं को किस क्रमसे करना चाहिये उसका उपदेश करते हैं । किंत उसमें सबसे पहले व्युत्सर्ग पर्यत की क्रियाओंका क्रम पांच श्लोकोंमें बताते हैं:
बचाय