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करती है। उनकी स्थिति और अनुभाग बढकर फलमें महत्ता प्राप्त होती है । ३ रे संचित पापकर्मकी फलदान शक्तिका अपकर्षण हो जाया करता है । वह घटकर अत्यंत अल्प रह जाती है। ४ थे नवीन पापकर्मका संवर हो । जाता है । अर्थात् चैत्य वन्दना करनेवाले को नवीन पापका आस्रव नहीं होता। अतएव मुमुक्षुओंको तीनोही सन्ध्यासमयोंमें यह जिन चैत्य वंदना हमेशा और अवश्य ही करनी चाहिये । इसी बातको यहांपर साधुओंको चैत्य वन्दनाकेलिये प्रेरित करते हुए स्पष्ट करते हैं:
दृष्ट्वाईत्प्रतिमा तदाकृतिमरं स्मृत्वा स्मरंस्तद्गुणान्, . रागोच्छेदपुरःसरानतिरसात् पुण्यं चिनोत्युच्चकैः । तत्पाकं प्रथयत्य, कशयते पाकाद्रुणब्यास्रवत्,
तच्चैत्यान्याखिलानि कल्मषमुषां नित्यं त्रिशुद्धया स्तुयात् ॥१५॥ मृतिक देखते ही जिसकी वा मुर्ति है उसकी आकृतिका तत्काल स्मरण हुआ करता है । अतएव जिन भगवान्की प्रतिमाका दर्शन करने वालोंको भी दर्शन करते ही उनकी आकृतिका स्मरण होता है । अरिहंत भगवान् के शरीरका आकार सम्पूर्ण मलदोषोंसे रहित स्फटिकके समान शुद्ध और समस्त धातु उपधातुओंसे रहित तेज:पुंजके सदृश हुआ करता है। जैसा कि कहा भी है कि:
शुद्धस्फटिकसंकाशं तेजोमूर्तिमयं वपुः ।
जायते क्षीणदोषस्य सप्तधातुविवर्जितम् ।। अठारह दोषोंसे रहित जिनमगवानका शरीर सातोही धातुओंसे रहित हुया करता है। वह निर्मल स्फटि. HI कके समान प्रकाशित होता हुआ ऐसा जान पडता है मानो तेजकी साक्षात् मूर्ति ही है।
आकृतिका स्मरण होते ही उन अद्विारकके वीतरागता प्रभृति अनेक गुणोंका मी माक्तिके अत्यन्त उद्रेकसे स्मरण होता ही है क्योकि वास आकृतिक देखनेसे उस आकृतिवालेके गुणोका मी दोष हो ही जाता है।