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बनमार
सराग और वीतराग व्यक्तिके, आकारमें अन्तर अवश्य रहा करता है। इस अंतरको ही देखकर आकृतिवालेके गुणों का स्मरण हुआ करता है । अतएव इस विषयमें कहा भी है कि:
"वपुरेव तवांचष्टे भगवन् वीतरागताम् ।
नहि कोटरसंस्थेऽनौ तरुभवति शाडुलः॥ हे भगवन् ! आपका शरीर ही आपकी वीतरागताको स्पष्ट कह रहा है। क्योंकि जिसके कोटरमें अग्नि जल रही हो वह वृक्ष हरा भरा कभी नहीं रह सकता। इसी प्रकार जिसके अन्तरङ्गमें क्रोधादि कषाय जाज्वल्यमान हों उसके शरीरका आकार प्रशान्त कमी नहीं रह सकता । अत एव आपके शरीरका आकार ही कह रहा है कि आप वीतराग हैं।
इस प्रकार जिन भगवान्की प्रतिमाका दर्शन करनेसे अरिहंत भगवान्की आकृतिकी स्मृति और उससे पुनः साक्षात् उनके वीतरागता सर्वज्ञता सर्वदर्शित्व आदि गुणों का स्मरण हुआ करता है। जिससे कि भाक्त में लीन हुआ वन्दारु-चैत्यवन्दना करनेवाला साधु उसी समय महान् पुण्य कर्मका-सातावेदनीय शुभ आयु शुभ नाम
और शुभ गोत्र कर्मका नवीन बन्ध किया करता है । तथा पूर्वके बंधे हुए पुण्य कर्मकी स्थिति और अनुभाग में अतिशय उत्पन्न किया करता है। जिससे कि वे उदय काल में पहले की अपेक्षा अत्यधिक शुभ फल दिया करते हैं। और पूर्वके जो पापकर्म बन्धे हुए हैं उनकी स्थिति तथा अनुभागमें अपकर्षण किया करता है। जिससे कि वे पहले के समान तीव्र फल नहीं दे सकतेतु मन्द मन्दतर फल देकर ही निर्जीर्ण होजाया करते हैं। इसी प्रकार वह चैत्यवन्दना करनेवाला साधु नवीन पाप कर्मका संवर किया लत्ता है।
___ अरिहंत भगवान् की प्रतिमाकी वन्दना करनेसे तत्काल ये चार फल प्राप्त हुआ करते हैं । अत एवं जिन्होने चार घातिया कोंको तथा अपने और भी पापकों या मल दोषों को नष्ट कर विशुद्धता प्राप्त करली है तथा जो दूसर वन्दना करनेवाले भव्यजीवोंका भी पापपङ्क दूर करनेवाले हैं उन श्री अरिहंत भट्टारककी कृत्रिम और अकृत्रिम सम्पूर्ण प्रतिमाओंका मुमुक्षुओंको तीनों ही सन्ध्या समयों में अपने मन वचन और शरीरको शुद्ध रखकर अवश्य ही स्तवन करना चाहिये ।
खक बंधे हुएतावदनीय शम
कि वे
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बध्याय