________________ बनगार अतएव यह बात सिद्ध है कि तीनों सन्ध्याओं के समय नित्यवन्दना चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति इन दो मातयोके द्वारा ही हुआ करती है, न कि सिदभक्ति आदि चार भक्तियोंके द्वारा। कृतिकर्मके छह भेदोका व्याख्यान करते हैं: स्वाधीनता परीतिस्त्रयी निषद्या त्रिवारमावर्ताः। द्वादश चत्वारि शिरांस्येवं कृतिकर्म षोढेष्टम् // 14 // .... कृतिकर्म छह प्रकारका है। स्वाधीनता, परीति, निषद्या, त्रिवार, आवर्त, और शिरोनति / वन्दना करने वालेकी स्वतन्त्रताका ही नाम स्वाधीनता है। इस विषयका विशेष उल्लेख आगे चलकर किया जायगा। परीति नाम प्रदक्षिणाका है। अर्थात् कृतिकर्म करते समय तीनवार प्रदक्षिणादेना इसको परीति कहते हैं। निषद्या नाम बैठने का है। सो यह तीन मेदरूप है। क्योंकि कृतिकर्म करनेवाले कोक्रिया विज्ञापनाके अनंतर चैत्यभक्तिके अनंतर और पंचगुरुभक्तिके अनंतर इस तरह तीनवार आलोचना करते समय पुनः पुनः बैठना पडता है / त्रिवार शब्दसे यहांपर वन्दना करते समय तीनवार किये जाने वाले कायोत्सर्गको लेना चाहिये। क्योंकि इस प्रकरणमें चैत्यभाक्ति पंचगुरुभाक्ति और समाधिभक्ति के अवसर पर तीन कायोत किये जाते हैं। आवर्तका स्वरूप पहले लिखा जा चुका है। ये प्रत्येक दिशाके तीन तीन मिलाकर चारो दिशाके बारह हुआ करते हैं। इसी तरह चार शिरोनतिका स्वरूप भी पहले कह चुके हैं / इसतरह कृतिकर्मरूप वन्दनाके छह मेद अथवा अंग हैं। जैसा कि सिद्धांतमें भी कहा है कि आदाहीणं पदाहीणं तिक्खुत्तं तिऊणदं / चदुरिसरं वारसावत्तं चेदि / / अर्थात-स्वाधीनता परीति निषद्या त्रिवार चतु:शिरोनति और बारह आवर्त ये छह कृतिकर्मके भेद हैं। जिन भगवानकी मूर्तिकी वन्दना करनेसे चार प्रकारके महान् फल प्राप्त हुआ करते हैं। यथा-१-नवीन 2 महान पुण्य कर्मप्रकृतियोंका आस्रव हुआ करता है। २रे पूर्व संचित पुण्य कमेके उदयम विशेषता प्राप्त हुआ अध्यायः