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अनमार
श्रुतदृष्टयात्मनि स्तुत्यं पश्यन् गत्वा जिनालयम् । कृतद्रव्यादिशुद्धिस्तं प्रविश्य निसही गिरा ॥ १७॥ चैत्यालोकोद्यदानन्दगलद्वाष्पस्त्रिरानतः। परीत्य दर्शनस्तोत्रं वन्दनामुद्रया पठन् ॥१८॥ कृत्वेर्यापथसंशुद्धिमालोच्यानम्रकांघ्रिदोः। नत्वाश्रित्य गुरोः कृत्त्यं पर्यङ्कस्थोग्रमङ्गलम् ॥ १९ ॥ उक्त्वाचसाम्यो विज्ञाप्य क्रियामुत्थाय विग्रहम् । प्रह्वीकृत्य त्रिभ्रमैकशिरोविनतिपूर्वकम् ॥ २०॥ मुक्ताशुक्त्यङ्कितकरः पठित्वा साम्यदण्डकम् । कृत्वावर्तत्रयशिरोनती भूयस्तनुं त्यजेत् ॥ २१॥
जिन भगवान्की वन्दना करनेकेलिये जिनालयको जाते समय मुमुक्षुओंको भावरूप श्री अरिहंत भगवान् का स्वरूप सम्पूर्ण बात्माओंमें अथवा अपने ही चित्स्वरूपमें परमागमके ज्ञानरूपी नेत्रोंके द्वारा देखते हुए गमन करना चाहिये । अर्थात भावरूप अहंदादिका चर्मचक्षुके द्वारा अवलोकन नहीं हो सकता; अतएव श्रुतज्ञानरूपी नेत्री के द्वारा उनका स्वरूप अपनेमें ही देखते हुए मन्दिरमें जाना चाहिये । और द्रव्य क्षेत्र काल मावकी शुद्धि करके " निसही निसही निसही" इस प्रकार उच्चारण करते हुए जिनमंदिरमें प्रवेश करना चाहिये। वहां पहुंचकर जिन मगवान्की प्रतिमाका दर्शन करते ही हृदयमें अत्यन्त आनंद-प्रमोदके उत्पन्न होनेसे जिसकी आंखोंसे हर्षके अश्रु झड रहे हैं ऐसे उस वन्दना करनेवालेको तीन वार भगवान्को नमस्कार करना चाहिये। उसके वाद जिनालय-गर्भ गृह अथवा उस वेदीकी कि जिसमें श्री जिन चैत्य विराजमान हों तीन बार प्रदाक्षणा देनी