________________ अनगार जेण तचं विबुज्झेज जेण चित्तं णिरुज्झदि। जेण अत्ता विसुज्झज्ज तं गाणं जिणसासणे / / जेण रागा विरज्जेज जेण सेएसु रज्जदि / जेण मिति पभावेज के णाणं जिणसासणे // अर्थात्-जिससे तत्त्वका विबोध प्राप्त होता है, जिससे चित्तका निरोध होता है, और जिससे आत्मा वि. शुद्ध हुआ करता है, वह ज्ञान जिनशासनमें ही मिल सकता है। जिससे रागभाव दूर किये जा सकते हैं, और जिससे श्रेयोमार्गों अनुरागकी उत्पत्ति होती है, तथा जिससे भैत्री भावनाकी प्रभावना हुआ करता है, वह ज्ञान जिनशासनमें ही मिल सकता है। यहांपर सूत्रकारने जिन दो सूत्रों के द्वारा दुर्लभ अर्थात् जिनमतके सिवाय अन्यत्र अलम्य ज्ञानका माहात्म्य बताया है उनमें से पहले सूत्र के द्वारा सम्परत्वसहचारी और दुसरे सूत्र के द्वारा चारित्र सहचारी ज्ञानका वर्णन किया है, ऐसा समझना चाहिये। . इस प्रकार स्वाध्यायके माहात्म्यका वर्णन करके अब पश्चिम रात्रिके समय साधुओंको स्वाध्यायका पहले प्रतिष्ठापन-प्रारम्भ फिर निष्ठापन-समाप्ति, और उसके बाद प्रतिक्रमण तथा उसके बाद रात्रियोगका निष्ठापन ये | क्रियाएं क्रम से अवश्य करनी चाहिये ऐसा उपदेश देते हैं: क्लमं नियम्य क्षणयोगनिद्रया लातं निशीथे घटिकाद्वयाधिके / स्वाध्यायमत्यस्य निशाद्विनाडिकाशेष प्रतिक्रम्य च योगमुत्सृजेत् // 7 // शक्तिके अनुसार मनके विचारोंका शुद्ध चिपमें रोकना योग कहा जाता है। इस योगको निद्राके समान समझना चाहिये। क्योंकि निद्राका लक्षण लिखा है कि " इद्रियात्ममनोमरुतां सूक्ष्मावस्था स्वापः" / अर्थात् इन्द्रिय आत्मा मन और प्राण इनकी सूक्ष्म अवस्था विशेषको निद्रा कहते हैं। योगमें भी इन चारोंकी सूक्ष्म अवस्था हुआ करती है। अत एव योगियोंको जो निद्रा आती है उसको योग निद्रा समझना चाहिये। अध्याय