________________ अनगार जिन्होने केवलज्ञानरूपी सूर्यकी किरणोंसे अज्ञानभावको सर्वथा नष्ट कर दिया है, और नव केवललब्धियोंके प्रकट होनेसे जिन्होने परमात्मा यह संज्ञा प्राप्त करली है, उनको अनादिनिधन आर्ष आगममें असहायज्ञानदर्शनसे युक्त होनेके कारण केवली और योगसे युक्त रहने के कारण सयोगी जिन कहा गया है। इस प्रकारके परमात्माके स्वरूपका संवेदन केवल योगियों को ध्यानके द्वारा ही हो सकता है। किंतु इस प्रकारके ध्यानकी प्राप्ति योगियोंको मनकी स्थिरतासे ही हुआ करती है। जिनका मन चंचल है उनको इस यानकी सिद्धि नहीं होती। जैसा कि कहा भी है कि: ध्यानस्य च पुनर्मुख्यो हेतुरेतच्चतुष्टयम् / गुरूपदेशः श्रद्धानं सदाभ्यासः स्थिरै मनः॥ अर्थात् ध्यानकी सिद्धिके प्रधानतया चार कारण हैं। - गुरुओंका उपदेश, श्रद्धान, निरंतर अभ्यास, और मनकी स्थिरता। और भी कहा है कि अविक्षिप्तं मनस्तत्त्वं विक्षिप्तं भ्रान्तिरुच्यते / धारयेत्तदविक्षिप्तं विक्षिप्तं नाश्रयेत्पुनः // अविक्षिप्त-अचपल-स्थिर मनको तत्व और उसके विरुद्ध विक्षिप्त-चंचल मनको भ्रान्ति माना है। अत एव मुमुक्षुओंको चंचल मनका आश्रय छोडकर स्थिर मनका ही आश्रय लेना चाहिये / चितकी स्थिरता जिनेन्द्र भगवान्की पूजा-वन्दना करनेसे हुआ करती है / अत एव कालुप्य रहित निमल बुद्धिके धारक साधुओंको उचित है कि उस परमात्माकी प्राप्तिका उपायभूत धर्म्य ध्यान या शुक्लध्यानरूप उपयोगका भी बीज-कारण चित्तकी स्थिरता को ही समझकर उसको सिद्ध करने के लिये परमागममें कहे मृजव परमात्मा-श्री जिनेन्द्र भगवान्की पूजा-विनयकर्म उसके अनन्तानन्त गुणोंक पिण्डमें गाढ अनुराग-भक्ति अथवा श्रद्धा रखते हुए अवश्य करें। क्योंकि यह पूजा ज्ञानावरणादि काँको अथवा कर्मों के आने के द्वाररूप मन वचन कायके व्यापार को नष्ट करने वाली है। बध्याय