________________ अनगार उपादेय और उपेक्षणीय तत्वोंका स्वरूप समझकर उनमें उसी प्रकारका श्रद्धानादि होना तत्त्वबोधका वास्तविक स्वरूप है / तत्वबोधसे मोक्ष का भागी जीव बन सकता है। परन्तु इस प्रकारका तत्ववोध-जिनशासन-सर्वज्ञ वीतराग भगवानके मतमें ही मिल सकता है, अन्य मतोंमें नहीं। २-मनोरोध-चित्तको विषयोंकी तरफसे हटाना, उसको परपदार्थोंकी या विषयोंकी तरफ जाने न देना मनोरोध कहा जाता है / " यद्यदैव मनसि स्थितं भवेत् तत्तदैव सहसा परित्यजेत् " अर्थात् मनमें जब कोई पदार्थ आकर उपस्थित हो तो उसको उसी समय छोड देना चाहिये। आत्म कल्याण या मोक्षमार्गके विरुद्ध कसा मी विचार यदि मनमें उत्पन हो तो उसको एक क्षण मी ठहरने नहीं देना चाहिये / यही मनके निग्रह करनेका उपाय है। इसको भी मनोरोध कहते हैं / सो यह मनोरोध भी सिवाय जिनशासनके अन्यत्र नहीं मिल सकता। ३-श्रेयोराग-यहांपर श्रेयस् शब्दसे चारित्र और राग शब्दसे उसमें लीन होनेका कारण अनुरागरूप श्रद्धान समझना चाहिये / अर्थात् मोक्षके साक्षात् कारण चारित्रमें लीन करदेनेवाला अनुरागरूप श्रद्धान मी अनेकान्त मतमें ही प्राप्त हो सकता है, दूसरे मतोंमें नहीं। ४-आत्मशुद्धि-जिस विषयका "मैं" इस तरहसे अनुपचरित-वास्तविक मान होता है उसको आत्मा कहते हैं / इस आत्मामें परपदार्थक संयोगसे रागादिरूप अशुद्धि हुआ करती है। उस अशुद्धिका दूर होना ही आ त्मशुद्धि कहाजाता है। यह भी जिनमतमें ही मिल सकती है। वास्तविक वीतरागता और आत्मशुद्धि अन्यमतके. अनुसार नहीं बन सकती। . ५-मैत्रीयोत-किसी भी जीवको कभी भी किसी भी तरह से दुःखकी उत्पत्ति न हो ऐसी अभिलाषाको मेत्री कहते हैं / इसका माहात्म्य विद्वानोंके हृदयमें उत्पन्न करना मैत्री द्योत समझना जाहिये / अर्थात् वस्तुतः मैत्री भावना की प्रभावना भी जिनमतमें ही बन सकती है, अन्यत्र नहीं। इस प्रकार ये पांच विषय हैं। च शब्द समुच्चय वाची है / अर्थात् ये पांचो ही समुदित अथवा इनमेंका प्रत्ये. क भी विषय जिनमतके सिवाय अन्यमतोंमें नहीं बन सकते / जैसा कि कहा भी है कि: अध्याय