________________ जवचार पुनरुदयद विद्यावैभवाः प्राणचार स्फुरदरुणविजृम्भा योगिनो यं स्तुवन्ति // परमागमका व्याख्यान करना पढना पढाना सुनना सुनाना उसका प्रचार करना ग्रंथरूप तयार करना कराना इत्यादि आगमकी तरफ उपयोग रखने पालेको जो फल प्राप्त हुआ करते हैं उनको दिखाते हुए उसके लोकोत्तर माहात्म्यका वर्णन करते हैं: खेदसंज्वरसंमोहविक्षेपाः केन चेतस : / क्षिप्येरन् मच जैनी चेन्नोपयुज्येत गीःसुधा // 8 // जिन भगवान की उपदिष्ट वाणीको अमृतकी उपमा दी जाती है। क्योंकि दोनों हीसे जीवोंका खेद संताप आदि दूर हुआ करता है / परन्तु वस्तुतः जिनवाणी अमृतसे अत्यधिक है। यह वह लोकोत्तर सुधा है कि जिसके सेवन करनेसे मानसिक खेद अथवा मनमें किसी प्रकारका उत्पन्न हुआ संताप, यद्वा सहज ही जीवोंको लगा हुआ अज्ञान, प्रायः चित्तमें अनेक कारणोंसे उत्पन्न होनेवाली व्याकुलताएं-नाना प्रकारके विक्षेप, सेवन करते ही दर होजाया करते हैं। यदि संसारमें यह जैनी वाणी न होती तो वस्तुतः इन मानसिक दोषोंका निराकरण करने में कोई मी समर्थ नहीं था / जब कि मिथ्यादृष्टि मी योग्य सुभाषित की प्रशंसामें यही बात कहते हैं; यथा: छान्तमपोज्झति खेदं तप्तं निर्वाति बुभ्यते मूढम / स्थिरतामेति व्याकुलमुपयुक्तसुभाषितं चेतः // यदि उत्तम सुभाषितका उपयोग किया जाय तो उससे क्लान्त हृदयका खेद दूर होता है, संतप्त मन शान्त बनता है, और अज्ञानी हृदयमें ज्ञानका संचार होता है, तथा व्याकुलित चित्त स्थिरताको प्राप्त हुआ करता है। जब कि मिथ्यादृष्टि भी सुभाषितकी इतनी प्रशंसा करते हैं तब श्री सर्वज्ञ वीतराग निर्दोष अरिहंत भट्टारकके मुखारविंदसे प्रगट हुई वाणीके माहात्म्यका तो कौन वर्णन कर सकता है।