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साम्यस्य हि स्तवस्य च मनोङ्गगीः संयतं परावर्त्यम् ॥ ८ ॥ मन वचन और शरीरकी चेष्टाको अथवा उसके द्वारा होनेवाले आत्म प्रदेशों के परिस्पन्दको योग कहते हैं. हिंसादिक अशुभ प्रवृत्तियों से रहित योग प्रशस्त समझा जाता है. इसी प्रशस्त योगको एक अवस्थासे हटाकर दूसरी अवस्थामें लेजानेका नाम परावर्तन है । और इसका दूसरा नाम आवर्त भी है । इसके मन वचन और कायकी अपेक्षा तीन मेद, और यह सामायिक तथा स्तवकी आदिमें और अंतमें किया जाता है अतएव इसके बारह भेद होते हैं। जो मुमुक्षु साधु वन्दना करने के लिये उद्यत है उन्हें यह बारहों प्रकारका आवर्त करना चाहिये । अर्थात उन्हें अपने २ मन वचन और काय सामायिक तथा स्तवकी आदि एवं अन्तमें पापव्यापारसे हटाकर अवस्थान्तरको प्राप्त कराने चाहिये।
भावार्थ-सामायिककी आदिमें समस्त क्रियाविज्ञापन विकल्पोंको छोडकर सामायिक दण्डकके उच्चारण करने में ही मनका उपयोग लगाना इसको संयतमनआवर्त कहते है । इसी प्रकार जिसमें भूमिका स्पर्श करना पडता है ऐसी अवननि क्रियारूप वन्दनामुद्रा करके पुनः खडे होकर मुक्ताशुक्ति मुद्राके द्वारा दोनों हाथोंका तीन वार घुमाना इसको संयत काय परावर्तन कहते हैं। तथा " चैत्य मक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहं" इत्यादि पाठका उच्चारण कर चुकनेपर " णमो अरहताणं" इत्यादि पाठके उच्चारण करने में जो वचनको लगाना उसको संयत वापरावर्तन कहते हैं । इस प्रकार सामायिक दण्डक की आदिमें ये तीन आवर्त-शुभ योगोंके परावर्तन हुआ करते हैं. इसी तरह अंतके भी तीन आवर्त यथायोग्य समझलेने चाहिये । तथा इसी प्रकार स्तव दण्डकके भी आ. दिमें एवं अंत तीन तीन आवर्त समझने चाहिये । इस तरह कुल मिलाकर एक कायोत्सर्गमें बारह आवर्त हुआ करते हैं।
यह बात भगवान् वसुनंदि सैद्धान्तदेवने आचारटीकाके अन्दर " दुप्रोणदंजहाजादं" इत्यादि सूत्रका व्याख्यान करते समय कही है । तथा क्रियाकाण्डमें भी कहा है कि:
द्वे नते साम्यनुत्यादा भ्रमानिनिस्त्रियोगगाः। त्रिनिर्धमे प्रणामश्च साम्ये स्तवे मुखाम्तयोः ॥
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