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चनगार
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खडे होकर दोनों कोहनियोंको पेटके ऊपर रखने और दोनों करों-हाथोंको मुकुलित कमलके आकारमें बनाने पर वन्दनामुद्रा होती है। जैसा कि कहा भी है कि
मुकुलीकृतमाधाय जठरोपरि कूर्परम् ।
स्थितस्य वन्दनामुद्रा करद्वन्द्वं निवेदिता ।। अर्थात् दोनों हाथ जोड कर कोहनीको पेटपर रखकर खडे रहनेवालेके वन्दना मुद्रा बताई है।
इसी प्रकार खडे रहकर और दोनो कोहनियोंको पेटके ऊपर रखकर दोनों हाथोंकी अंगुलियों को आकार विशेषके द्वारा आपसमें संलग्न करके मुकुलित बनानेसे मुक्ताशुक्तिमुद्रा होती है। जैसा कि कहा भी है कि:--
मुक्ताशुक्तिर्मता मुद्रा जठरोपरि कूपरम् ।
ऊर्ध्वजानोः करद्वन्द्वं संलग्राङ्गुलि सूरिभिः॥ - इन चार प्रकारकी मुद्राओंमेसे कौनसी मुद्राका प्रयोग किस विषयमें करना चाहिये सो बताते हैं:
स्वमुद्रा वन्दने मुक्ताशुक्तिः सामायिकस्तवे ।
योगमुद्रास्यया स्थित्या जिनमुद्रा तनूज्झने ॥८७॥ आवश्यकोंका पालन करनेवालोंको वन्दनाके समय वन्दनामुद्रा, और " णमो अरहताणं " इत्यादि सामायिकदण्डकके समय तथा “ थोस्सामि" इत्यादि चतुर्विंशतिस्तवदण्डकके समय मुक्ताशुक्तिमुद्राका प्रयोग करना चाहिये. इसी प्रकार बैठकर कायोत्सर्ग करते समय योगमुद्रा और खडे होकर कायोत्सर्ग करते समय जिनमुद्रा धारण करनी चाहिये। मुद्राके अनन्तर क्रमके अनुसार आवोंके स्वरूपका निरूपण करते हैं:--
शुभयोगपरावर्तानावर्तान् द्वादशाहुराद्यन्ते ।
बध्याय
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