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परम्परासे मोक्षकी प्राप्ति है, मो यह फल निर्दोष कायोत्सर्गसे ही मिल सकता है सदोष नहीं ।
ध्यानके उत्थितास्थितादिक चार भेद हैं। उनमें दोका फल इष्ट और दोका अनिष्ट है । इसी बातको बताते :
सा च द्वयीष्टा सद्ध्यानादुत्थितस्योत्थितोत्थिता। उपविष्टोत्थिता चोपविष्टस्यान्यान्यथा द्वयी ॥ १२३ ॥
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कायोत्सर्ग दो प्रकारका है, एक इष्ट दूसरा अनिष्ट । इष्ट कायोत्सर्गमें धर्म्य और शुक्ल ध्यान किया जाता है। हुन समीचीन ध्यानाक आश्रयसेही उसको इष्ट अथवा इष्ट फलका देनेगला माना गया । इष्ट कायोत्सर्ग दो प्रका.
का है. एक उत्थितोत्थित दूपरा उपविष्टोस्थित । खडे होकर कायोत्सर्ग करने वाले-खडे आसनसे कायोत्सर्ग कर ते समय धर्म्य या शुक्लध्यान करने वालेके उत्थितोत्थित नामका कायोत्सर्ग कहा जाता है। क्योंकि वह मुमुक्ष अंतरंग और बहिरंग दोनों ही तरहसे खडा हुआ ही समझा जाता है । जो बैठकर कायोत्सर्ग करने वाले हैं उनके वह कायोत्सर्ग उपविष्टोस्थित नामका कहा जाता है। क्योंकि वह द्रव्यसे बैठा हुआ है। परन्तु अंतरंगसे-वस्ततः खडा हआ है। इन दोनोंही सर्माचीन कायोत्सगासे सध्यानकी विशुद्धि और निःश्रेयस पदकी सिद्धि हुआ करती. अतएव इनको ही अभीष्ट फलका देने वाला समझकर आचार्योंने इष्ट माना है।
इनके विरुद्ध दो प्रकारका कायोत्सर्ग अनिष्ट माना है क्योंकि उनका फल अनिष्ट-संसारकी वृद्धि करने वाला है। इस अनिष्ट कायोत्सर्गके दो मेद इस प्रकार हैं। एक तो उपविष्टोपविष्ट दुमग उत्थितोपविष्ट । जो बैठकर आर्त अथवा रौद्र ध्यान करता है उसके कायोत्सर्गको उपविष्टोपविष्ट कहते हैं। क्योंकि वह द्रव्य और भाव दोनों की तरफसे बैठा हुआ है । जो खडे होकर आत या रौद्र ध्यान करता है उसके कायोत्सर्गको उत्थितोपविष्ट कहते हैं। क्योंकि वह द्रव्यसे खडा हुआ है परन्तु भावोंसे बैठा हुआ है
- इन इष्ट-अनिष्ट चार प्रकारके कायोत्सर्गाका स्वरूप आगममें भी इसी प्रकार कहा है । यथाः
बन्याय