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पालन करनेवाला साधु उसकी कथा-षडावश्यक की प्रशंसा या निरूपण सुनकर हर्षको प्राप्त हुआ करता है। उनकी निन्दाके विषय में गूंगा और बहिरा बन जाया करता है । न तो स्वयं ही आवश्यकोंकी निन्दा करता है
और न दूसरोंकी की हुई निन्दाको सुनता ही है। आवश्यकों का पालन करनेमें इस प्रकार सदा अप्रमत्त प्रवृत्ति किया करता है जैसे कि कोई धातुवादी-सायन सिद्ध करने वाला पारद आदि रसके सिद्ध करनेमें निरंतर सावधान रहा करता है। जिस प्रकार थीण कषाय ऋषि कषायका सम्पर्क नहीं होने देता उसी प्रकार पडावश्यक पालन करने वाला भी क्रोधादिकका प्रवेश नहीं होने देता । तथा वैद्यराजकी तरह काल और क्रमका कमी पविक्रम नहीं होने देता। जिस प्रकार वैद्यके लिये कहा गया है कि:
प्रावृद सुकनभोतेषु शरदूर्जसहौ स्मृतौ । तपस्यो मधुमासश्च वसन्तः शोधन प्रति ॥ स्वस्थवृत्त्यमभिप्रेत्य व्याधौ व्याधिवशेन तु । कृत्त्वा शीतोष्णवृष्टीनां प्रतीकारं यथायथम् ।।
प्रयोजयेत् क्रियां प्राप्तां क्रियाकालं न हापयेत् । अर्थात्-प्रावट-वर्षा आदि जिस ऋतु में जिस २ प्रकारको चिकित्सा करना उचित है उस समयमें उसी प्रकार इलाज करना चाहिये । वैद्यों को चिकित्साका काल छाडना या भूलना उचित नहीं है । उसी प्रकार क्रमके लिये भी कहा गया है कि:
प्राक्पाचनं स्नेहविधिस्ततश्च स्वेदस्ततः स्यामनं विरेकः।
. निरूहणं स्नेहनवस्तिकर्म नस्य क्रमश्चेति मिषग्वराणाम् ।। इति । अर्थात सबसे पहले पाचन उसके बाद क्रमसे स्नेहविधि स्वेद वमन विरेक निरूहणवस्तिकर्म स्नेहनवस्तिकर्म और नस्यका प्रयोग करना चाहिये । इसी तरह जो षडावश्यकोंका पालन करनेवाला वह भी उनके काल और क्रमको चूकता नहीं है। जो आवश्यक जिप समय और जिस क्रमसे करना चाहिये उसको उसी समय और उसी क्रमसे किया करता है । तथा जिस तरह कोई महान् वंशमें उत्पन्न होनेवाला कुलीन पुरुष कमी