________________
बबचर
८४३
आत्मन्यात्मासितो येन त्यक्ता वाऽऽशास्य भावत:।
निसह्य सह्यौ स्तोन्यस्य तदुच्चारणमात्रकम् ॥ १३३ ॥ जिस साधुने अपनी आत्माको अपनी आत्मामें ही स्थापित कर रक्खा है अर्थात रोक रक्खा है उसके निश्चय नयसे निसही समझना चाहिये । और जिसने इस लोक परलोक आदि सम्पूर्ण विषयोंकी आशा का परित्याग कर दिया है उसके निश्चय नयसे असही समझना चाहिये । किंतु इसके प्रतिकूल जो बहिरात्मा है अथवा आशावान् हैं उनके ये निसही और असही केवल शब्दोच्चारण मात्र ही समझना चाहिये।
भावार्थ-निसही और असही निश्चय नयसे जो अन्तरात्मा तथा परिग्रहरहित निग्रंथ साधु हैं उन्हीके समझना चाहिये । और जो वैसे नहीं हैं उनके केवल निसही असही शब्दका उच्चारणमात्र ही कहा जा सकता है। जैसा कि कहा भी है कि:
स्वात्मन्यात्मासितो येन निषिद्धो वा कषायतः।।
निसही भावतस्तस्य शब्दोन्यस्य हि केवलः ॥ अर्थात-जिसने अपनी आत्माको अपनी आत्मामें ही स्थापित-उपयुक्त कर रखा है, अथवा कषाय परिणापोंसे रोक रक्खा है उसीके निश्चयसे निसही समझना चाहिये । जो ऐसा नहीं है उसके निसही शब्द उच्चारण मात्र ही रहा करता है। इसी तरह:
आशां यस्यक्तवान् साघुरसही तस्य भावतः।
त्यक्ताशा येन नो तस्य शब्दोच्चारो हि केवलः ॥ अर्थात-जिस साधुने आशाको छोड दिया है भावतः असही उसीके कही जा सकती है। और जिसने । आशाको छोडा नहीं है उसके केवल उसका उच्चारण ही कहना चाहिये ।
और भी कहा है कि:
बध्याय
८४३