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अनगार
योर्हत्सिद्धाचार्याध्यापकसाधून नमस्करोत्यर्थात् ।
प्रयतमतिः खलु सोखिलदुःखविमोक्षं प्रयात्यचिरात ॥ १३१ ॥ जो जीव अहंत परमेष्ठी-सकल परमात्मा और सिद्धपरमेष्ठी-विकलपरमात्माको तथा आचार्य उपाध्याय और ढाईद्वीपवर्ती सम्पूर्ण साधुओंको भावोंसे नमस्कार करता है, और उसके लिये ही प्रयत्न करनेका चित्म विचार किया करता है वह जीव संसारके चतुर्गति सम्बन्धी सम्पूर्ण दुःखोंसे थोडे ही कालमें नियमसे छूट जाया करता है।
भावार्थ-पंचपरमेष्टियोंकी मावसे वंदना करनेवाला और उसके लिये प्रयत्नशील रहनेवाला मनुष्य अल्पकालमें ही शास्वतिक निर्दुःख पद-परम निःश्रेयसको प्राप्त कर सकता है। - निसही और असही इन दोनों क्रियाओं का प्रयोग कर क्यों और किसतरह करना चाहिये सो बताते हैं
वसत्यादौ विशेत तत्स्थं भूतादि निसहीगिरा।
आपृच्छय तस्मान्निर्गच्छेत्तं चाप्रच्छयाऽसहीगिरा ॥ १३२॥ साधुओंको जब मठ चैत्यालय या वसतिका आदिमें प्रवेश करना हो तब उन मठादिकों में रहने वाले भूत यक्ष नाग आदिकोंसे "निसही" इस शब्दको बोलकर पूछकर प्रवेश करना चाहिये । इसीतरह जब वहांसे निकलना हो तब " असही" इस शब्द के द्वारा उनसे पूछकर निकलना चाहिये । जैसाकि कहा भी है कि:
वसत्यादिस्थभूतादिमापृच्छय निसहीगिरा।
वसत्यादी विशेत्तस्मानिर्गच्छेत् सोऽसही गिरा॥ अर्थात--वसतिका आदिमें रहने वाले भूतादिकोंसे "निसही" इस शब्दके द्वारा पूछकर साधुओंको वसतिका आदिमें प्रवेश करना चाहिये । और असही इस शब्दके द्वारा पूछकर यहाँसे बाहर निकलना चाहिये।
निसही और असही शब्दका निश्चयनयकी अपेक्षा अर्थ बताते हैं:
बध्याय