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बनगार
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भी ऐसा कोई काम नहीं किया करता जो कि उसके कुनके विरुद्ध हो; उसी तरह षडावश्यक पालन करनेवाला साधु भी कमो ऐमा कोई निन्द्य आवरण नहीं किया करता जो कि लोक विरुद्ध कुलविरुद्ध और समयविरुद्ध अर्थात् शास्त्र या आगम अथवा गुरुपरम्पराके विरुद्र हो।
यहाँपर जातु-कदाचित शब्द अन्त्यदीपक है, अतएव यद्यपि उमका प्रयोग अन्तिम वाक्यके साथ ही किया गया है तो भी उसका सम्बन्ध यथासम्भव सभी वाक्यों के साथ करलेना चाहिये।, इसी विषयमें और जगह भी एमा कहागया है कि
तत्कथाश्रवणानन्दो निन्दाश्रवणवजनम् । अलुब्धत्वमनालस्यं निन्द्यकमव्यपोहनम् ॥ कालक्रमाऽव्युदामित्वमुपशान्तत्वमाजवम्
विज्ञेयानीति चिहानि षडावश्यककारिणः॥ अर्थात-षडावश्यकोंकी प्रशंसा सुनकर आनंदित होना, और उसकी चिन्दाको न सुनना, तथा अलुब्ध ता, अनालस्य, और निन्द्य आचरणोंका परित्याग, काल तथा ऋमको छोडना नहीं, और उपशान्तता, तथा आजब मावोंको धारण करना, ये पडावश्यक पालन करनेवाले के चिन्ह समझने चाहिये।
पूर्वोक्त षडावश्यकोंका पूर्णतया अच्छी तरह पालन करनेवाले पुरुषको निःश्रेयस पदकी और अपूर्णतया पालन करनेवालको स्वर्गादिक अभ्युदयोंकी प्राप्ति हुआ करती है । ऐसा कहकर षडावश्यकके पालन करनेका फल बताते हैं:
समाहितमना मौनी विधायावश्यकानि ना। .
संपूर्णानि शिवं याति सावशेषाणि वै दिवम् ॥ १२९ ॥ प्रकृत विषयके सिवाय अन्य किसी भी विषय वार्तालाप न करनेवाला द्रव्य पुरुष एकाग्र चित्त होकर ISI ८४. सामायिकादि नही आवश्यकोंका पूर्णरूपसे यदि मलेप्रकार पालन करता है तो वह नियमसे मोक्षपदको प्राप्त कि या करता है। और जो कुछ कमती पालन करता है वह नियम से स्वर्गति कल्पवासियों में महर्द्धिक पदको प्राप्त