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बनगार
साम्यं त्यक्ततनुर्जिनान् समदृशः स्मृत्वावनम्य स्तवं,
युक्त्वा साम्यवदुक्तभक्तिरुपविश्यालोचयेत् सर्वतः ।। १२७ ॥ निज आत्मस्वरूपकी प्राप्तिकी उपायभूत समाधि-रत्नत्रयकी एकाग्रताको जो प्राप्त करना चाहते हैं उन संयमियों अथवा एक देश संयमियों को बैठकर नमस्कार करके कर्तव्य कर्मका पूज्य गुरुओंसे आवेदन करना चाहिये । अर्थात् प्रणाम पूर्वक और अत्यंत विनयके साथ "चैत्यभक्ति कायोत्सर्ग करोमि" इत्यादि पाठ बोलकर क्रिया कर्मकी विज्ञापना करनी चाहिये । फिर खड़े होकर आदि और अंतमें तीन २ आवर्त और एक एक शिरोनतिके साथ सामायिक दण्डकका पाठ बोलकर कायोत्सर्गके लिये खडे होना चाहिये । अर्थात् शरीरसे ममता छोडकर कायोत्सर्ग करना चाहिये । इसके बाद समदृष्टी-जीवन मरण हानि लाम यश अपयश और शत्रुमित्रमें समभाव रखनेवाले-रागद्वेष न करनेवाले जिन-पूर्ण रूपसे अथवा एकदेश रूपसे कर्म शत्रुओंको जीतने वाले आंदादि पांचो ही परमेष्ठीका चिन्तवन करके और नमस्कार करके सामायिककी ही तरह अर्थात् आदि और अंतमें तीन २ आवर्त और एक २ शिरोनतिके साथ "थोसामि" इत्यादि स्तव दण्डक बोलकर बन्दना कल्पका पाठ करके सभी अंशोकी आलोचना करनी चाहिये। मलेप्रकार पडावश्यकोंका पालन करनेवाले के चिन्होंको बताते हैं:
शृण्वन् हृष्वति तत्कथां धनरवं केकीव मूकैडता, तद्हेंऽङ्गति तत्र यस्यति रसे वादीव नास्कन्दति । क्रोधादीन जिनवन्न वैधपतिवद् व्यत्येति कालक्रम,
निलं जातु कुलीनवन्म कुरुते का घडावश्यकम् ॥ १२८ ॥ जिस प्रकार मयूर मेघके शब्दाको सुनकर प्रसन हुआ करता है उसी प्रकार पडावश्यकोंका अच्छी तरह
बध्याय