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बनगार
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मन वचन कायसे शुद्ध-पवित्र क्रिया कर्म करने का अधिकारी सा होना चाहिये सो बताते हैं:
यत्र स्वान्तमुपास्य रूपरसिकं पूतं च योग्यासना,द्यप्रत्युक्तगुरुक्रमं वपुरनुज्येष्ठोद्घपाठं वचः। तत् कतुं कृतिकर्म सज्जतु जिनोणस्त्योत्सुकस्तात्त्विकः
कर्मज्ञानसमुच्चयव्यवसितः सर्वसहो निस्पृहः ॥ १२६ ॥ जिस कृतिकर्मके करते समय भव्य जीवोंका मन सिद्ध परमेष्ठी प्रभृति आराध्य देवों के स्वरूपकी उपासना करनेमें सातिशय अनुरागको प्राप्त हो जाता है, और अत्यंत विशुद्ध परिणापोंको धारण करके पवित्र बन जाता है। इसो प्रकार जिस कृतिकमेके समय मुमुक्षुओंका शरीर अत्यंत पवित्र तथा योग्य आसनादिके करनेसे गुरु क्रमका उल्लंघन न करने में सावधान रहा करता है । अर्थात् दीक्षाकी अपेक्षा जो बडे हैं उनके समक्ष क्रिया करनेकी परिपाटीको यहां गुरुक्रम समझना चाहिये । उचित आसनादिका प्रयोग करनेके कारण शरीरके द्वारा जहापर गुरुकमका भंग नहीं किया गया है । एवं जिम कर्मके करनेमें वचन, बडोंके बताये क्रमके अनुसार प्रशस्त उच्चारण से युक्त और वर्ण पद आदिसे शुद्ध रहा करते हैं। फलत: जिस कृतिकर्मक करने में उसके करनेवालों के मन शरीर
और वचन तीनों ही शुद्ध-पवित्र बन जाते हैं, उस कर्मको करनवाला कैसा होना चाहिये ? इसी बातका उत्तर पांच . विशेषणों के द्वारा यहाँपर देते हैं:
१ अरिहंत भगवानकी उपासना द्वारा कृति कर्म करने में जिसकी उत्कण्ठा बढरही है।
२ जो पारमार्थिक हो । वंचना आदिका भाव न रखकर सचमुचमें क्रिया कर्म करके संवर और निर्जराको प्राप्त कर आत्मकल्याणका अभिलाषा हो।
३-आगममें बताई हुई क्रियाओं के करने और निज स्वरूप के ज्ञानका संग्रह करनेमें जो उत्साह के साथ प्रवृत्ति करता हो.
अध्याय