________________
अनगार
विषयों की आशा लगी हुई है वह धर्मध्यान शुक्लध्यान अथवा समाधिको किस तरह सिद्ध कर सकता है । रे समीचीन ध्यानके सिद्ध हुए विना आत्मपद-मोक्षका लाभ किस तरह हो सकता है।
भावार्थ-समीचीन ध्यानके सिवाय कोई भी ऐसा आचरण नहीं है कि जिससे कर्मों की निशेष निजरा होकर शुद्धात्मपद प्राप्त हो सके। और इस ध्यानकी सिद्धि के लिये आशाका त्याग और आशाका परित्याग करने के लिये शरीरसे ममत्व छोडना अत्यंत आवश्यक है। अतएव इष्ट पेदको प्राप्त करने के लिये अनशनादिक व्रताचरण करनेवालोंको शरीरसे ममत्वका त्याग करना ही चाहिये ।
कायोत्सर्गका काल जघन्य अन्तमहत और उत्कृष्ट एक वर्षका बताया है। सो अतीचारों-मलदोषाको दूर करने के लिये और पडावश्यक क्रियाओंको सिद्ध करने के लिये-उन क्रियाओंके पालन करनेमें दृढता-निष्ठा प्राप्त करने के लिये उतने कालतक कायोत्सर्ग करना ही चाहिये। परन्तु यदि उतने कालप्रमाणसे अधिक समयतक भी अपनी शक्ति के अनुसार किया जाय तो वह दोषका कारण नहीं है । प्रत्युत उससे लाम ही है। इसी बातको कहते हैं:
हृत्वापि दोषं कृत्वापि कृत्यं तिष्ठेत तनूत्सृतौ ।
कर्मनिर्जरणाद्यर्थ तपोवृद्ध्यै च शक्तितः ॥ १२५ ॥ जितनी देर तक कायोत्सर्ग करके दोषोच्छेदन किया जा सकता है उतनी देरतक कायोत्सर्ग करनेके उपरांत, अथवा षडावश्यक क्रियाओंके करनेमें जितना कायोत्सर्ग करना चाहिये उतने कालतक कायोत्सर्ग करके संचित काँकी निर्जरा और नवीन कमोंका संवरण करने के लिये अथवा तपको बढाने के लिये शक्तिके अनुसार और भी खडे रहना चाहिये।
भावार्थ-नियत समय तक तो कायोत्सर्ग करना ही चाहिये । क्योंकि उससे दोषोंका परिहार और संवर निर्जराके कारणभूत कर्मकी सिद्धि होती है । परन्तु नियत कालके अनंतर शक्तिको बढाने के लिये अधिक भी खडा रहे-कायोत्सर्ग करे तो इस में कोई दोष नहीं है। बरिक ऐसा करनेसे तपस्या और उसकी शक्ति बढती है, यह लाम ही है।
अध्याय