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अनगार
निषिद्धचित्तो यस्तस्य भावतोस्ति निषिद्धिका । अनिषिद्धस्य तु प्रायः शब्दतोस्ति निषिद्धिका ।। आशया विप्रमुक्तस्य भावतोस्त्यासिका मता।
आशया त्ववियुक्तस्य शब्द एवास्ति केवलम् ।। अर्थात-जिसने अपने चित्तको विषयोंसे उपरत बना रक्खा है भावतः निषिद्धिका-निसही उसी के रहा करती है। और जिसका चित्त संयत नहीं है उसके निषिधिका शब्द मात्र ही रहती है। इसी तरह जो आशासे रहित है उसके भावसे और जो उससे युक्त है उसके शब्द मात्रही आसिका-असही रहा करती है।
अब अंतमें प्रकृत विषयका उपसंहार करते हुए नित्यनैमित्तिक क्रियाकर्मका पालन करने के लिये साधुओं को प्रेरित करते हैं:
इत्यावश्यकनिर्युक्तावुपयुक्तो यथाश्रुतम् ।
प्रयुञ्जीत नियोगेन नित्यनैमित्तिकक्रियाः ॥ १४ ॥ पूर्व में आवश्यकोंके पालन करने की जो गति नीति बताई गई है तदनुसार आवश्यकोंके सम्पूर्ण उपायों में दत्तचित्त होकर कृतिकर्मकी विधि बतानेवाले शास्त्रोंके अनुसार तथा गुरुपरम्परासे जो उपदेश चला आरहा है उसके अनुसार साधुओंको नित्य नैमित्तिक क्रियाओं का पालन अवश्य ही करना चाहिये ।।
मोक्ष कल्याणमें अपनी बुद्धिको लगाकर जिसने श्री जिनेन्द्र भगवान्के उपदिष्ट आगमरूपी क्षीर समुद्रका मंथन करके सुमना -विद्वानों [ पक्षमें देवताओं ] की तृप्ति के लिये इस धर्मरूपी अमृतको उदधृत किया है वह महा पंडित श्री आशाधर जयवंता रहो तथा वह प्रसिद्ध मव्यात्मा हरदेव मी सदा आनंदको प्राप्त हो कि जिसके उपयोगके लिये इस टीकारूपी शुक्तिकी सुखपूर्वक रचना हुई है ।
इस प्रकार आवश्यकनियुक्त नामका आठवां अध्याय समाप्त हुआ।
अन्याय