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धर्मः
बबराय
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२८--कोलाहलादिके कारण मर्नमें विक्षेपका पैदा होना-चित्तमें चंचलता या चलायमानता आजाना व्याक्षेपासक्तचित्तता नामका दोष है। . . २९-समयका विचार करके कायोत्सर्ग के विविध अंगोंको छोड देना कालापेक्षाव्यतिक्रम नामका दोष है।
३०-गृद्धि या लोभके वशीभूत होकर चित्तमें विक्षेप पैदा होना लोभाकुलता नामका दोप है। ३१- कर्तव्य या अर्तव्य के विषयमें विवेक न रखना मूढता नामका दोष है।
३२-कायोत्सर्ग करते समय हिंसादिक पापकर्मों में उत्साहका उत्कृष्ट हो जाना पाएकभैकसर्गता नामका दोष है।
इस प्रकार कायोत्सर्गके ३२ दोषों का स्वरूप बताकर अंतमें उपसंहार करते हुए शुद्ध-इन दोषोंसे रहित कायोत्सर्ग करने का फल बताते हैं:
योज्येति यत्नाद् द्वात्रिंशद्दोषमुक्ता तनूत्सृतिः।
सा हि मुक्त्यङ्गसद्ध्यानशुद्धयै शुद्धैव संमता ॥ १२२ ॥ मुमुक्षु साधुओंको अप्रमत्त होकर उपर्युक्त बत्तीस दोष-अतीचार छोडकरके ही कायोत्सर्ग करना चाहिये। क्योंकि यद्यपि निःश्रेयस पद के प्राप्त होनेका प्रधान कारण समीचीन ध्यान-धर्म्य ध्यान और शुक्ल ध्यान है। किंतु दोनों ही ध्यान में शुद्धि-निर्मलता शुद्ध-निरतीचार कायोत्सर्गके करनेसेही प्राप्त होसकती है। ऐसा ही आचार्यों का आभप्राय है । जैसा कि कहा भी है :
सदोषा न फलं दत्त निदोषायास्तनूत्सृतेः ।
किं कूटं कुरुते कार्य स्वर्ण सत्यस्य जातुचित् ॥ ___ अर्थात-निर्दोष कायोत्सर्गका फल सदोष कायोत्सर्गसे नहीं मिल सकता । क्या सच्चे सुवर्णका काम कुत्रिम सुवर्ण दे सकता है? कभी नहीं दे सकता । इस प्रकार कायोत्सर्गका फल समीचीन ध्यानकी निर्मलता या
बध्याप
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