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बनगार
गौरवं स्वस्य महिमन्याहारादावथ स्पृहा ॥ १०३ ॥ १३- ऋषि मुनि यति और अनगार इसतरह चारो प्रकारके मनियोंका संघ मेरा भक्त बनजायगा ऐसा माव रखकर जो बन्दना करना इसको तेरहवां ऋद्धि गौरव नामका दोष समझना ।
१४-अपने माहात्म्पकी इच्छा करना, अथवा भोजन और उपकरण आदिकी स्पृहा रखकर बन्दना करना चौदहवां गौरव नामका दोष है।
स्याद्वन्दने चोरिकया गुर्वादेः स्तेनितं मलः।
. प्रतिनीतं गुरोराज्ञाखण्डनं प्रातिकूल्यतः॥१.१॥ - १५- आचार्य प्रवर्ती और उपाध्याय आदि गुरुजनोंसे छिपाकर वन्दना क्रिया करना स्तेनित नामका पंद्रहवां मल-दोष समझना चाहिये । १६- प्रतिकूल वृत्ति रखकर गुरुकी आज्ञाका खंडन करदेना सोलहवां प्रतिनीत नामका दोष है।
प्रदुष्टं वन्दमानस्य द्विष्टेऽकृत्वा क्षमा त्रिधा।
तर्जितं तर्जनान्येषां स्वेन स्वस्याथ सूरिभिः॥१.५॥ १७-कलह वगैरहके द्वारा किसीके साथ द्वेषका विषय यदि उपस्थित होगयाहो तो उस विषयमें मन वचन और कायके द्वारा जिसका अपराध किया है उसके मनमें क्षमाभाव उत्पन्न कराये विना, वा स्वयं उसके प्रति क्षमा धारण किये विना वन्दना करना प्रदुष्ट नामका सत्रहवां दोष है।
१८-अंगूठाके पासकी अंगुली-तर्जनीको उटाकर और हिलाकर दूसरे शिष्पादिकोंको अपनेसे भय उत्पन्न करना तर्जित नामका दोष है । अथवा आचार्यादिकोंके द्वारा अपनी तर्जना होना यह भी वर्जित नामका ही अठारहवां दोष है।
अन्याय
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