________________
बनगार
३२-वन्दना करते समय उसके पाठको गागाकर-पंचम-स्वरसे बोलना यह वन्दनाका बत्तीसवां सुल. लित नामका दोष है।
इस प्रकार बन्दना सम्बन्धी ३२ दोष हैं। कर्मों की निर्जरा करने के जो अमिलाषी हैं उनको यह वन्दना किया हन बत्तीस दोषोंसे रहित करनी चाहिये ।
भावार्थ-यहांपर वन्दनाके ३२ दोषोंका उल्लेख करके ग्रंथकार ने अंतमें पुन: उन दोषोंका स्मरण कराया है जिनको कि वन्दना करते समय अवश्यही टालना चाहिये । इन दोषोंके सदृश और भी दोष जैसे कि वन्दना करते समय शिरको नीचा ऊंचा करना, अथवा शिरको ऊपरको करके वंदना करना, यद्वा हाथोंको घुमाना फिराना तथा गुरु के सामने खड़े होकर पाठका उच्चारण करना, इत्यादि संभव है। अतएव क्रिया काण्डादिमें कहे मजब सभी दोष टालना उचित है। क्योंकि दोष रहित वन्दना ही निर्जराका कारण हो सकती है।
इस प्रकार वन्दना सम्बन्धी ३२ दोषोंका वर्णन करके क्रमानुसार कायोत्सर्गके दोषोंका स्वरूप ११ श्लोकॉमें बताते हैं:
कायोत्सर्गमलोस्त्येकमुत्क्षिप्याधिं वराश्ववत् ।
तिष्ठतोऽश्वो मरुद्धृतलतावच्चलतो लता ॥ ११२ ॥ १-उत्तम घोडा जिस प्रकार एक पैरको जमीनसे अच्छी तरह न छुपा कर खडा हुआ करता है उसी प्रकार कायोत्सर्ग करते समय एक पैरको जमीनसे अच्छी तरह न लगाकर खडे रहना कायोत्सर्गका घोटक नामका पहला दोष है।
२-जिस प्रकार हवाके लगनेसे लता कांपा करती है उसी प्रकार कायोत्सर्ग करनेवालेका शरीर यदि कांपे-चलायमान हो तो उसको लता नामका दोष समझना चाहिये ।
यहाँपर पहले ही दोषका स्वरूप बताते समय मल शब्दका जो प्रयोग किया है उसका सम्बन्ध आदि दीपकन्यायसे आगे जिन दोषों का वर्णन करते हैं उन सबके साथ लगा लेना चाहिये ।
अध्याय