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२५-ये संघकी बडी जबर्दस्ती है कि बलपूर्वक-हठसे क्रिया कराई जाती है, इस प्रकारकी बुद्धिका होना संघकरमोचन नामका दोष है।
उपध्याप्त्या क्रियालब्धमनालब्धं तदाशया ।
हीनं न्यूनाधिकं चूला चिरेणोत्तरचूलिका ॥ १.९॥ २६ -उपकरणादि परिग्रहका लाम होनेपर आवश्यक क्रिया करना आलब्ध नामका दोष है। २७-उपकरणादिकी आशासे क्रिया करना अनालब्ध नामका दोष है। २८--मात्रा प्रमाण क्रिया न करके अधिक या कम करना इसको हीन नामका दोष समझना चाहिये ।
२९-वन्दनाको तो थोडीसी देर में ही पूर्ण कर देना और उसकी चूलिकारूप आलोचना आदि क्रियाओंको अधिक समय तक करना इसको उत्तर चूलिका दोष कहते हैं।
मूको मुखान्तर्वन्दारोर्तुङ्काराद्यथ कुर्वतः ।
दुर्दरो ध्वनिनान्येषां स्वेन च्छादयतो ध्वनीन् ॥ ११॥ ३०-यदि वन्दना करने वाला वन्दनाके पाठको मुखके भीतर ही बोले जिससे कि किसीको सुनाई हो न पडे इसको मूक दोष कहते हैं । अथवा वन्दना करते समय हुंकार आदि संज्ञाएं-इशारे करना भी मूक नामका दोष कहा है।
१-वन्दना करते समय उसका पाठ इतने जोरसे बोलना कि जिससे अपनी ध्वनिसे दूसरे वन्दना करनेवालोंका शब्द दब जाय इसको दुर्दर नामका दोष कहा है।
द्वात्रिंशो वन्दने गीत्या दोषः सुललिताह्वय :। इति दोषोज्झिता कार्या वन्दना निर्जरार्थिना ॥ १११ ॥
अध्याय