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स्तब्धमत्यासन्नभावः प्रविष्टं परमेष्ठिनाम् ॥ ९८ ॥ १-चन्दनाके कर्म में तत्परता न रखना, अर्थात उसको प्रधान मानकर जैसी प्रवृत्ति होनी चाहिये वैसी न करना और उसमें आदर भाव रहित होना, इसको बन्दनाका पहला अनादत नामका दोष समझना चाहिये।
२ ज्ञान पूजा कुल जाति आदि आठ विषयों की अपेक्षा लेकर जो अहंकार होता है उसको मद कहते हैं। इन आठो ही अथवा इनमेसे अन्यतर के द्वारा अपने उतार्षिकी संभावना करके इन मदोंके वशीभूत हो जाना इसको स्तब्ध नामका दुसरा दोष समझना चाहिये ।
३- अदादिक परमेष्टियों के अत्यंत निकट वर्ती होकर उनकी वन्दना करना इसको बन्दनाका तीसरा प्रविष्ट नामका दोष समझना चाहिये ।
हस्ताभ्यां जानुनोः स्वस्य संस्पर्शः परिपीडितम्।
दोलायितं चरन कायो दोलावत् प्रत्ययोथवा ॥१९॥ ४.- अपने दोनों हाथोंपे अनी दोनों जंघाओं का चारो तरफ स्पर्श करना, अर्थात वन्दना करते समय जंघाऑपर हाथ फेरते जाना या फेरना इसको वंदनाका परिपीडित नामका चौथा दोष कहते हैं।
५-जिस प्रकार झूलापर बैठे हुए आदमी का शरीर चलायमान हुआ करता है उसी प्रकार वन्दना करनेवाला यदि अपने शरीरका यातायात को तो उसको दोलायित दोप समझना चाहिये । अर्थात वंदना करते समय यदि शरीर आगेको झुके फिर पीछे को फिर आगेको फिर पीछे को इसी तरह चलायमान हो तो वंदनाका वह पांचवां दोलायित दोष है । अथवा स्त्युत्य स्तुति और स्तुति के फलके विषयमें चलापमान ज्ञानका होना -संशय करना उसको भी दोलायित दोष कहते हैं।
भालेंकुशवदङ्गुष्ठविन्यासोऽङ्कुशितं मतम् । निषेदुषःकच्छपवद्रिखा कच्छपरिङ्गितम् ॥१..॥
बध्याय
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