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बनगार
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बध्याय
V
काय का व्यापार विशुद्ध पाया जाज। जहां पर तीनों ही योग कालुष्यरहित रहा करते हैं। और जो अपने चितिकर्म सम्बन्धी तथा व्युत्सर्ग सम्बन्धी बत्तीम २ दोषोंले रहित हो ।
कहा भी है कि -
दुओणदं जहाजादं बारसावत्तमेव य । चदुम्सिरं तिसुद्धं च किदिरम्मं पउज्जदे || तिविहं तियरगसुद्धं मयहियं दुबिहागवणरुत्तं । विएण कमविरुद्धं विदियम्मं होइ काठ ॥ किदियम्म पि कुतो ण होदि किदियम्मि णिज्जगभागी । बाणणदरं साहद्वाण विगाहतो ।
अर्थात- बारह आवर्त चार शिरोनति और मनवचन की शुद्धि युक्त यथाजात नित्य नैमित्तिक क्रिया करनी चाहिये । तीन करणोंसे शुद्ध मदरहित दो प्रकार के स्थानांपे (उद्भव और उपवेशन ) युक्त और क्र मपूर्वक किये जानेसे विशुद्ध तीन प्रकारका कृतिकर्म करना चाहिये। कृतिकर्म करने भी कृतिकर्मका फल प्राप्त नहीं हुआ करता। क्योंकि बस जा साधुग्थान बनाये हैं उनमें से किसी एक का मी विराधन करनेवाला माधु निर्जराका भागी नहीं बन सकता । अर्थात् बत्तीस दोषों को टालकर जो जिनवंदना आदि करता है वही कम की निर्जरा कर सकता है।
यहां पर जिन बंदना ३२ और कामो
३२ दोषों का स्वरूप चौदह श्लोकों के द्वरा बताते हैं: -
३२ दोष टालने के लिये जो कहा है उसमें वन्दना सम्बन्धी
अनादृतमतात्पर्यं वन्दनायां मदोद्धृतिः ।
१ – आगे चलकर १११ वें गाथा में ऐसा कहेंगे कि " इति दोषोझा कार्या बन्दना निर्जरार्थिना । " अर्थात् निर्जरार्थियों को इस प्रकार ३२ दोषोंस रहित बन्दना करनी चाहिये । सो इस श्लोकका सम्बन्ध वहांतक जोडलेना चाहिये । तथा १०४ के श्लोक में मल शब्द आया है इसलिये मध्य दीपक न्याय से अथवा अन्त्यदीपकन्यायले इन अनादृतादिक भावों को बन्दनाका दोष समझना ।
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