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अनगार
बन्दना आदि नित्य कर्म करने योग्य काल आसन स्थान मुद्रा आदिका आश्रय लेने का पहले जो वन कर चुके हैं उसके अनुसार आवाका स्वरूप बताने के बाद शिरोनतिका वर्णन करना क्रम प्राप्त है. अतएव उसका वर्णन करते हैं:
। प्रत्यावर्तत्रयं भक्त्या नन्नमत् क्रियते शिरः।
यत्पाणिकुड्मलाङ्क तत् क्रियायां स्याच्चतुःशिरः ॥ ९ ॥ प्रकृतमें शिर शब्दका अर्थ भक्तिपूर्वक मुकुलित हुए दोनों हाथोंसे संयुक्त मस्तकका तीन तीन आवताके अनंतर नम्रीभूत होना समझना चाहिये। भावार्थ-यहां पर शिर शब्दसे शिरोननि अर्थ समझना चाहिये. चैत्यभक्ति आदिके अथवा कायोत्सर्गके विषयमें चार २ शिरोनति की जाती हैं. क्योंकि सामायिक दण्डक तथा स्तव दण्डकके आदि और अन्तमें तीन तीन आवर्तके अनन्तर एक एक शिरोनति करनेका आगम में विधान किया है.
चैत्यभक्ति आदि करते समय आवर्त आर शिरोनति दूसरी तरहसे भी हो सकती हैं। इसी बात को बताने लिये सूत्र कहते हैं :
प्रतिभ्रामरि वाचादिस्तुतौ दिश्येकशश्चरेत्।।
त्रीनावर्तान् शिरश्चैकं तदाधिक्यं न दुष्यति ॥ ९१ ॥ चैत्यादि की भक्ति करते समय प्रत्येक प्रदक्षिणामें पूर्वादिक चारो दिशाओं की तरफ प्रत्येक दिशामें रोना आवर्त और एक शिरोनति करनी चाहिये। यहापर यह बात भी ध्यानमें रखनी जरूरी है कि आवर्त और शिनतियों का जो प्रमाण बताया गया है उससे यदि अधिक आवर्त तथा शिरानति हो जाय तो वह कोई दोषका नहीं है।
मावार्थ-चारो दिशाओं के मिलाकर चार शिरोनति और बारह आवर्त चैत्यमक्ति आदि करने वाले ६.प्रत्येक प्रदक्षिणामें हो जाते है। जैसा.कि कहा भी है कि:
अन्याय
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