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बनगार
उससे अधिक प्रदक्षिणा होजानेपर आवर्त और शिरोनति का प्रमाण भी अधिक हो सकता है, ऐसा सिद्ध होता है। ग्रंथकार अपने और दूपरे आचार्यों के मतमे शिरोनतिके विषयका निर्णय प्रकट करते हैं:
द्वे साम्यस्य स्तुतेश्चादी शरीरनमनान्नती।
वन्दनाद्यन्तयोः कैश्विन्निविश्रा नमनान्मते ॥ ९३ ॥ . सामायिक दण्डक जौर चतुर्विशति स्तवकी आदि में दो शिगेननि करनी चाहिये । यह नात शरीरके पा.' चा अंगों को नमाकर जिसप कि भमिका सहो जाय प नाही करनी चाहिये । श्रस्वामी समन्तभद्र प्रमृति आचार्योंने दो नति माना हैं । पन्त उनको वन्दनाकी आदि और अनमें बैठ प्रणाम करके दोनति करना इष्ट है। जैसा कि श्री भगवान् प्रमाचन्द्र देवने ग्लण्डकी टीका " नगवत्रि यं-" इत्यादि सूत्रके. " द्विनिषद्य" इस पदका व्याख्यान करते समय लिया कि "देववनानां कृति हिमपम सौ चोपविश्य प्रणामः कर्तव्यः।" अर्थात् देववन्दना करने वाले को आदि और अंग बैठका प्रणाप क ना चाहिये । प्रणामके भेद और उनका स्वरूप दो श्ल द्वारा बनने :--
योगैः प्रणामस्त्रधाज्ञानादेः कीर्तनाताभिः । के करी ककर जानुका ककरज'नु च ॥४॥ नम्रमेकद्वित्रिचतुःश्चकाधिकः क्रमात ।
प्रणामः पञ्चधावाचि यथास्थानं कियत सः ॥ ५५ ॥ मन वचन और कायकी अपेक्षा प्रणाम तीन प्रकारका है। क्योंकि मर्वज्ञ वीतराग श्री परमेष्ठी अथवा सिद्ध भगवान् के ज्ञानादिक गुणों का कीर्तन इन तीनों ही योगों के द्वारा किया जाता है. इनमें से शारीरिक प्रणाम पांच प्रकारका है। कायिक प्रणाममें शरीर के अंगोंको नम्राभूत किया जाता है, अतएव शरीरके पांच अंगोंकी अपेक्षा