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बनगार
चतुर्दिनु विहारस्य परावर्तानियोगगाः ।
प्रतिभ्रामरि विज्ञेया आवर्ता द्वादशापि च । ___ अर्थात् - चैत्यभक्ति आदि करते समय चारो दिशाओंकी तरफ प्रदक्षिणा देते हुए त्रियोग सम्बन्धी परावर्तन हुआ करते हैं। प्रत्यक दिशामें तीन आवर्त हुआ करते हैं। अतएव प्रत्येक प्रदक्षिणामें बारह आवर्त हो जाते हैं।
आवर्त और शिगेनति उक्त प्रमाण अधिक भी हो जाय जैसाकि तीन प्रदक्षिणा देने आदिके समय सं. भव है तो उसमें कोई दोष न समझना चाहिये। क्योंकि इस विषय में चारित्र सारमें भी कहा है कि:
“एकस्मिन् प्रदक्षिणीकरणे चैत्यादीनामभिमुखीभूतस्यावर्तत्रयकावनमने कृत चतसृष्वपि दिक्षु द्वादशावताश्चतस्रः शिरोवनतयो भवन्ति । आवतानां शिरःप्रातीनामुक्तप्रमाणादाविन्यमपि न दोषाय"
अर्थात - एक या पहली प्रदक्षिणा देने में प्रतिमा आदिके सम्मुख खडे होकर तीन आर्वत और एक शिरोनति की जाती है, इसलिये चारो दिशाओं में मिलकर बारह आवर्त और चार शिरोनति हो जाती हैं। आवर्त और शिरोनति इस प्रमाणसे अधिक भी हो जाय तो उसमें कोई दोष नहीं है। इसी अभिप्रायका समर्थन करते हैं:- .
दीयते चैत्यनिर्वाणयोगिनन्दीश्वरेषु हि ।
वन्द्यमानेष्वधीयानैस्तत्तद्भक्तिं प्रदक्षिणा ॥ ९२॥ जिम समय मुमुक्षु मंगमी चैत्य वंदना या निर्वाण वंदना अथवा योगि वंदना यद्वा नंदीश्वर चैत्य वंदना किया करते हैं; उस समय तसद्भक्तिका पाठ बोलते हुए वे प्रदक्षिणा दिया करते है।
भावार्थ:-चत्यादि वंदना करते समय चत्यभक्ति आदिका जो पाठ क्रिया काण्डमें प्रसिद्ध है उसको बोलते हुए प्रदक्षिणा दी जाती है. इससे जब कि एक ही प्रदक्षिणामें बारह आवर्त और चार शिरोनति हो जाती है तब
अध्याय
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