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बनगार
धर्म
जैसा कि ऊपर वर्णन किया जा चुका है तदनुसार नित्य और नैमित्तिक क्रियाओंके द्वारा पापकर्मोका निर्मल निरसन करते हुए और मन वचन कायके व्यापारोंका भले प्रकार निग्रह करके-तीनों गुलियोंके आश्रयसे ज्ञानको निर्मल बनाते हुए जो अभ्यास-पुनः पुन: प्रवृत्तिके द्वारा अपने स्वपरावभासी ज्ञानको परिपक्व बनाता है वह उस कैवल्य-निर्वाणको प्राप्त करलेता है जो कि पुनः जन्ममरण के अभावसे अभिव्यक्त स्वाभाविक निर्मलतासे युक्त और परमोत्कृष्ट शांतिरूप प्रमोदसे अनुविद्ध-पृथक्तया अनुभव में आनेवाले अर्थात् दूसरे सम्पूर्ण द्रव्यों में मिला हुआ रहने पर भी अन्य द्रव्यरूप जिसका परिणमन अशक्य है, और इसी लिये जो अपने इस अशक्य विवेचन के द्वारा मिनरूपसे अन् भवमें आता है, एवं जिसमें समस्त लोक और अलोकका स्वरूप प्रकाशमान रहता और सम्पूर्ण द्रव्य तथा उनकी भूत भविष्यत् वर्तमान सब पर्याय विषय हुआ करती हैं ऐसे परिपूर्ण ज्ञानके द्वारा अत्यंत रमणीय है।
। भावार्थ-नित्य नैमित्तिक क्रियाओंके अनुष्ठानसे ही ज्ञान निर्मल और परिपक्व हुआ करता है जिससे कि कैवल्य की प्राप्ति हुआ करती है । अतएव योगियों को नित्य नैमित्तिक कर्मकाण्डमें अवश्य ही प्रवृत्त होना चाहिये. और उसका पुन: पुन: अभ्यास करना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
नित्यनैमित्तिकैरेव कुर्वाणो दुरितक्षयम् ।। ज्ञानं च विमलोकुर्वन्नभ्यासेन तु पाचयेत् ॥
अर्थात नित्य नैमित्तिक क्रियाओंके द्वारा पापका क्षय करते हुए ज्ञानको निर्मल बनाना चाहिये । तथा बार बार इस तरहकी प्रवृत्ति करके अपने इस ज्ञानको परिपक्क कर देना चाहिये । क्योंकि
अभ्यासात् पक्कविज्ञानः कैवल्यं लभते नरः। इस पनः पुनः प्रवृतिके द्वारा ज्ञान परिपक्व होजानेसे ही मनुष्य कैवल्यको प्राप्त करलेता है।
इस प्रकार आवश्यकोंका प्रकरण समाप्त हुआ।