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बनगार
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मुहूर्तत्रितयं काल: संध्यानां त्रितये बुधैः ।
कृतिकर्म विधेनित्यः परो नैमित्तिको मतः ।। अर्थात् कृतिकर्मको नित्यकी विधि के कालका उत्कृष्ट परिमाण तीनों संध्याओंमें तीन तीन मुहूर्त है । योग्य काल का स्वरूप बताकर अब 'क्रमानुसार योग्य आसनका स्वरूप बताते हैं:
वन्दनासिद्धये यत्र येन चास्ते तदुद्यतः ।
तद्योग्यमासनं देशः पीठं पद्मासनाद्यपि ॥ ८॥ वन्दनाकी सिद्धि कलिये उद्यत हुआ साधु जहांपर नन्दनाके लिये बैठता है अथवा जिसके द्वारा वन्दनामें प्रवृत्त होता है उस प्रदेश, पीठ सिंहासन या पद्मासनादिकको योग्य आसन कहते हैं। जैसा कि कहा भी है कि:
श्रास्यते स्थी ते यत्र येन वा वन्दनोद्यतैः ।
तदासन विबोद्धव्यं देशपद्मासनादिकम् ।। वन्दना कर्म करने के लिये प्रवृत्त हुए साधु जापर या जिसके द्वारा वन्दनाके लिये बैठे उस देश या पद्मासनादिकका नाम आसन है । प्रदेश पीठ और पद्मासनादिकमेंस बन्दनाके लिये प्रदेश कैसा होना चाहिये सो बताते हैं:
विविक्तः प्रासुकरत्यक्तः संक्लेशक्लेशकारणैः।
पुण्यो रम्यः सतां सेव्य:श्रयो देशः समाधिचित ॥८१॥ समक्षओंको समाधिके साधक और वर्धक ऐसे प्रदेशमें वन्दना करनी चाहिये जोकि शुद्ध एकान्त तथा प्रासुक हो । अर्थात् जो अप्रशस्त लोक और समर्छनजीवोंसे सर्वथा रहित है, जहापर संक्लेशके कारण गगद्वेषादिक या क्लेशकष्टके कारण परीषद उपसर्ग नहीं पाये जाते, जो किसीके निर्वाण आदि कल्याणकके द्वारा पवित्र हो चुका है, और जो रमणीय तथा प्रशस्त ध्यानका वर्धक है।
यध्याय