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जमार
अब नित्य नैमित्तिक कर्मकाण्डमेंसे पूर्वोक्त पडावश्यकोंके सिवाय जो कृतिकर्म बाकी रह जाता है उसका भी संग्रह करते हुए मुमुक्षुओंको उसका सेवन करने केलिये प्रेरित करते:
योग्यकालासनस्थानमुद्रावर्तशिरोनति ।
विनयेन यथाजातः कृतिकर्मामलं भजेत् ॥७८ ॥ संयमका ग्रहण करते समय जो निग्रंथरूपले पुनः उत्पन्न हुआ है और इसी लिये जो बाह्य तथा अभ्यंतर परिग्रहोंकी चिन्तासे सर्वथा रहित है ऐसे परम निःश्रेयसके अभिलाषी संयमीको योग्य-समाधिक लिये सहकारी निमित्त कारण-काल आसन स्थान मुद्रा आवर्त और शिरोनतिरूप कृतिकर्म-पापकर्मके उच्छेदन करनेवाले अनुष्ठानका बत्तीस दो को टालकर और विनयपूर्वक सेवन करना चाहिये।
पहले वन्दनाके प्रकरणमें उसकी विधि बताते समय दिनका आदि मध्य और अंत इस तरह वन्दनाके लिये तीन संधिकाल बता चुके हैं। किंतु वहां पर कालका परिमाण नहीं बताया है । अत एव यहाँपर नित्य देवबन्दनाके विषयमें तीनों कालोका परिमाण बताते हैं:
तिस्रोऽहोत्या निशश्चाद्या नाड्यो व्यत्यासिताश्च ताः ।
मध्याह्नस्य च षटुकालास्त्रयोमी नित्यवन्दने ॥ ७९ ॥ तीन संधिकालोंकी अपेक्षासे वंदना भी तीन प्रकारकी होती है। पूर्ववन्दना अपराहवन्दना और मध्याहवन्दना । इन कालोंका परिमाण इस प्रकार है ।-दिनकी आदिकी तीन घडी और रात्रिकी अंतकी तीनघडी इस तरह मिलाकर छह घडी काल पूर्वाह वन्दनाका है । तथा दिनकी अंतकी तीन घडी और रात्रिकी आदिकी तीन घडी इस तरह मिलाकर छह घडी काल अपराण्ह वन्दनाका है. इसी प्रकार मध्यान्हसे तीन घडी पहलेका और तीन घडी पीछे का कुल मिलाकर छह घडी काल मध्याह्ववन्दनाका है। यह संध्या बन्दनाओंका उत्कृष्ट काल है, जैसा कि कहा भी है कि:
बन्याय