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अनगार
स्वाध्यायके बारह, वन्दनाके छह, प्रतिक्रमणके आठ, और योगभक्ति के दो, इस तरह मिलाकर दिनरातमें अहाईस कायोत्सर्ग हुआ करते हैं । इनका विशेष विभाग आगे चलकर लिखेंगे।
काँकी सातिशय निर्जरारूप फल प्राप्त करने के लिये कायोत्सर्ग करते समय ध्यान और उपसर्ग तथा परीपहोंका सहन विशेषतया करना चाहिये, ऐसा उपदेश देते हैं:
व्युत्सृज्य दोषान् निःशेषान् सद्धयानी स्यात्तनूत्सृतौ ।
सहेताप्युपसर्गोभीन् कमवं भिद्यतेतराम् ॥ ७६ ॥ कायोत्सर्गमें प्रवृत्त हुए मुमुक्षुओंको ईर्यापथादिक अतीचार अथवा कायोत्सर्ग सम्बन्धी समस्त दोष जिनका कि आगे चलकर वर्णन किया जायगा अच्छी तरहसे छोडकरके विशेषतया प्रशस्त ध्यानके करनेमें ही प्रवृत्त होना चाहिये । अर्थात् आलस्यको छोडकर धर्म्य यद्वा शुक्लध्यानका ही सेवन करना चाहिये । जैसा कि कहा भी है किः
कायोत्मगस्थितो धीमान् मलमीयोपथाश्रयम् ।
नि:शेषं तत्समानीय धम्य शुक्लं च चिन्तयेत् ।। अर्थात् कायोत्सर्ग करनेवाले विवेकी साधुओं को र्यापथ दोषोंको निःशेष करके धर्म्य वा शुक्ल ध्यानका चिन्तवन करना चाहिये । इतना ही नहीं बलिक कायोत्सर्ग करनेमें यदि किसी भी तरहका उपसर्ग या परीषह आ. कर उपस्थित हो जाय तो उसको भी अच्छी तरह सहन करना चाहिय । क्योंकि ऐसा करनेसे ही ज्ञानावरणादिक दुर्वार काँका प्रकर्षतया विश्लेषण-निर्जरण हो सकता है। अत एव निर्जराके अभिलाषियों को कायोत्सर्ग करते समय परीषह और उपसगोंका भी अवश्य ही सहन करना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि
उपसर्गस्तनूत्सर्ग श्रितस्य यदि जायते । देवमानवविर्यग्भ्यस्तदा सह्यो मुमुक्षुणा ॥
अध्याय
८.४