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अनगार
.आहिकेष्टशतं रात्रिभवेर्धे पाक्षिके तथा। नियमान्तस्ति संस्थेयमुच्छासानां शतत्रयम् ॥ चतुःपञ्चशतान्याहुश्चतुर्मासाब्दसंभवे ।
इत्युच्छ्वासास्तनूत्सर्गे पञ्चस्थानेषु निश्चिताः ।। मत्र पुरीष आदिका उत्सर्ग करके जो प्रतिक्रमण किया जाता है उस समय अथवा अर्हतशय्या अथवा साधुशय्याकी वन्दना करते समय यद्वा स्वाध्यायकी आदिमें जो कायोत्सर्ग किया जाता है उसमें कितने २ उच्छास हुआ करते है सो बताते है:
मूत्रोच्चाराध्वभक्तार्हत्साधुशय्याभिवन्दने ।
पञ्चाग्रा विंशतिस्तस्यु:स्वाध्यायादौ च सप्तयुक् ॥ ७३ ॥ मूत्रका या पुरीषका उत्सर्ग करके, एक ग्रामसे चलकर दूसरे ग्राममें पहुंचनेपर या भोजनके पीछे, अथवा अहेच्छय्या या साधुशय्याकी वंदना करत समय जो कायोत्सर्ग किये जाते हैं उनमें पच्चीस पच्चीस उछास हुआ करते हैं। इसी प्रकार स्वाध्यायकी आदि या अंतमें नित्यवंदनाके समय अथवा तन्काल मनमें विकार उत्पन्न होनेपर जो कायोत्सर्ग किया जाता है उनमें सत्ताईस सत्ताईस उछस होने चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
प्रामान्तरेऽन्नगनेहत्साधुशय्यामिवन्दने । प्रस्रावे च तयोच्चारे उच्छासाः पञ्चविंशतिः ॥ स्वाध्यायोद्देशनिर्देशे प्रणिधानेथ वन्दने ।
सप्तविंशतिरुच्छाः कार्योत्सर्गेमिसंमताः ॥ किसीमी ग्रंथके प्रारम्भ करनेको उद्देश और उस प्रारब्ध ग्रंथ की समाप्तिको निर्देश कहते हैं । तथा मानसिक विकार वा तत्क्षण उत्पन्न हुए अशुभ परिणामोंको प्रणिधान कहते हैं । जिनेन्द्र भगवान्के निर्वाण
अध्याय