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बनगार
शास्त्रके जाननेवाले अनुपयुक्त आत्माको, यद्वा उस आत्माके शरीर को या भाविपर्यायको, अथवा कर्मनोकर्मरूप तद्वयतिरिक्तको द्रव्यकायोत्सर्ग कहते हैं। सावध क्षेत्रका सेवन करनेसे लगे हुए दोषोंको नष्ट करने के लिये जो किया जाय उसको अथवा जहाँपर कायोत्सर्ग किया गया हो उस स्थानको क्षेत्र कायोत्सर्ग कहते हैं। इसी प्रकार सावध समय के सेवनसे संचित हुए दोषोंका ध्वंस करनेके लिये जो किया जाय उसको अथवा जिस समयमें कायोत्सर्गका परिणमन हो उस समयको कालकायोत्सर्ग कहते हैं । मिथ्यात्वादि परिणाम रूप अतीचारोंका परिहार करनेके लिये किये गये कायोत्सर्गको अथवा जिसमें कायोत्सर्गका वर्णन किया गया है ऐसे शास्त्रके जाननेवाले उपयुक्त आत्माको या उस ज्ञानको अथवा उस जीवके प्रदेशोंको भाव कायोत्सर्ग कहते हैं।
कायोत्सगके कालका प्रमाण सामान्यतया तीन प्रकारका हो सकता है, जघन्य उत्कृष्ट और मध्यम । किन्तु इनका प्रमाण कितना कितना है और किस तरह नापा जा सकता है सो बताते है।
_ कायोत्सर्गस्य मात्रान्तर्मुहूर्तोऽल्पा समोत्तमा ।
. शेषा गाथान्यंशचिन्तात्मोच्छासर्नेकधा मिता ॥ ७१ ॥ कायोत्सर्गका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट एक वर्ष, और मध्यम अनेक प्रकारका है । एक समय अधिक आवली प्रमाणकालसे लेकर एक समय कम मुहूर्त प्रमाणतकके कालको अन्तर्मुहूर्त कहते हैं। यह कायोत्सर्गका जघन्य काल है। इससे ऊपर-अधिक और एक वर्षसे कम दो तीन आदि मुहूर्त या प्रहर दिन पक्ष मास आदिक, कार्य काल द्रव्य क्षेत्र भाव आदिकी अपेक्षासे कायोत्सर्गके मध्यम कालके भेद अनेक हैं । जैसा कि कहा भी कि:
अम्ति वर्ष समत्कृष्टो जघन्योन्तर्मुहूर्तगः ।
कायोत्सर्गः पुनः शेषा अनेकस्थानगा मताः ॥ " कायोत्सर्गके कालका यह प्रमाण उन उन्छासों के द्वारा गिना जा सकता है जिनमें कि "णमो अरहंताणं" इत्यादि गाथाके तीन अंशॉमेसे प्रत्येक अंशका चितवन किया जाता है।
बध्याय