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अनगार
. ऊपर नामादिके भेदसे प्रत्याख्यानके छह भेद बताये हैं। किंतु उनमें द्रव्य प्रत्याख्यान व्यवहारकेलिये उपयोगी है । अत एव उसका विशेष स्पष्टीकरण करते हुए प्रत्याख्येय विषयों के विशेष भेद और प्रत्याख्यान करनेवालेका स्वरूप बताते हैं:
सावद्येतरसञ्चित्ताचत्तमिश्रोपींस्त्यजेत् । चतुर्धाहारमप्यादिमध्यान्तेष्वाज्ञयोत्सुकः ॥ ६८ ॥
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अहंतदेवकी आज्ञामें उपयोग लगाकर और जैसी कुछ गुरुओंकी आज्ञा हो उसके अनुसार उत्सुकता रखकर साधुओंको प्रत्याख्यान के आदि मध्य और अन्त में सावद्य तथा निरवद्य दोनों ही प्रकारके सच्चित्त अचित्त आर मिश्र परिग्रहाको तथा चार प्रकारके आहारका मी प्रत्याख्यान करना चाहिये ।
भावार्थ-जिनको छोडना चाहिये उनको प्रत्याख्येय कहते हैं । इस द्रव्यप्रत्याख्यान के प्रकरणमें प्रत्याख्येय विषय मूल में दो हैं। एक उपधि दूसरा आहार । उपधि नाम परिग्रहका है। वह दो प्रकार की होती है, एक सावद्य दूसरी निरवद्य । जिसकी उत्पत्ति आदि हिमादिकके निमित्तमे है उसको सावध कहते हैं। और जिसमें हिंसादिक न हों उनको निरवद्य कहते हैं। इनमें भी प्रत्येक परिग्रह तीन तीन प्रकारकी होती है, सच्चित्त अचित्त और मिश्र। जिसमें चेतन-जीवका सद्भाव रहे उसको सच्चित्त और जिसमें उसका सद्भाव न रहे उसको अचित्त, तथा जिसमें चित और अचिन दोनों ही रूप पाये जाय उसको मिश्र कहते हैं । आहार के चार भेद हैं जो कि पहले बताय जा चुके हैं। यहांपर यद्यपि चार प्रकार के आहारका त्याग करने के लिये कहा है तो भी अपिशब्दकी सामर्थ्य में तीन प्रकारका भी आहार छोडना चाहिये, ऐमा भी अभिप्राय समझलेना चाहिये। ये ही द्रव्यप्रत्याख्यान के प्रत्याख्येय - त्याज्य विषय है। इन्ही के छोडनेको प्रत्याख्यान कहते हैं। और जो अत देवकी आज्ञा का यथावत् श्रद्धान करके और गुरुके आदेशानुसार इनका प्रत्याख्यानकी आदि मध्य और अंतमें त्याग करता है उसको प्रत्याख्याता कहते हैं। जैसा कि कहा भी है कि:
अध्याय