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का लक्षण इस प्रकार बताया है कि भविष्यत् और वर्तमान काल विषयक अतीचारोंके दूरकरनेको प्रत्याख्यान कहते हैं। इसी बात-संग्रहको स्पष्ट करते हैं:
धर्म
तन्नाम स्थापनां तां तद्रव्यं तत्क्षेत्रमञ्जसा ।
तं कालं तं च भावं न श्रयेन्न श्रेयसेस्ति यत् ॥६६॥ जो निश्रेयसके साधनमें उपयोगी नहीं है-रत्नत्रयके विरोधी हैं उन अयोग्य नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र और काल तथा भावका मुमुक्षुओंको परमार्थतः-अन्तरङ्गसे सेवन न करना चाहिये । परमार्थसे कहनेका प्रयोजन यह है कि उपसर्ग आदिके निमित्तसे कदाचित अयोग्य नामादिका उच्चारण या सेवन आदि होजानेपर भी प्रत्याख्यानमें हानि नहीं होती। क्योंकि उसका वहां पर सेवन भावपूर्वक नहीं होता।
जो समक्ष योग्य नाम आदिका सेवन करता है वह परम्परासे अवश्य ही रत्नत्रयका आराधक है, इस वातको प्रकाशित करते हैं:
यो योग्यनामाधुपयोगपूतस्वान्तःपृथक् स्वान्तमुपैति मूर्तेः।
सदाऽस्पृशन्नप्यपराधगन्धमाराधयत्येव स वर्त्म मुक्तेः ॥ ६७ ॥ जिनका सेवन करनेसे शुद्धोपयोग प्रकट हुआ करता है या हो सकता है उन योग्य नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल और भावका सेवन करने से जिनका अन्तरंग अत्यंत पवित्र हो चुका है, जो अपने आत्मस्वरूपको शरीरसे सर्वथा मिन्न समझते हैं, और जो स्वात्मोपलब्धिके विरोधी परद्रव्य ग्रहणका कभी रंचमात्र भी स्पर्श नहीं करते-अर्थात् जिनमें कमी प्रमादका लेशमात्र मी नहीं पाया जाता उन साधुओंको अवश्य ही मोक्षके मागेका रत्नत्रयका आराधन करनेवाला समझना चाहिये ।
अध्याय
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