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जानवार
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बध्याय
७.
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- मेरे ये कर्म मिथ्या हो जांय " इत्यादि उपायोंसे नित्य प्रतिक्रमण किया करता है— उनका निराकरण करदिया करता है उसको चारित्रवान् और इस तरह से प्रतिक्रमण करनेको चारित्र समझना चाहिये। क्योंकि इस तरह नित्य प्रतिक्रमण करनेवाला ऐसा अनुभव किया करता है कि चित्स्वरूप मैं, मैं शब्द के द्वारा ही जाना जाता हूं । और इस तरहकी अनुभव प्रवृत्तिका ही चारित्र कहते हैं। क्योंकि अखण्ड ज्ञानस्वभाव निज आत्मस्वरूपमें ही निरंतर रमण करनेका नाम वस्तुतः चारित्र है । अत एव संचित कर्मोंके प्रतिक्रमण नित्य निराकरण करनेको चारित्र समझना चाहिये । इसीको ज्ञान चेतना भी कह सकते हैं। क्योंकि वह " में अव स्वयं ही ज्ञानानुभवरूप हो रहा हूं" इस तरह से अपने ज्ञानमात्र स्वभावका ही अनुभव किया करता है ।
इसी प्रकार वर्तमान में उदयमें आनेवाले कमोंके आलोचन करनेवाले और भविष्यत कमका निरोध करने वालेको भी चारित्रस्वरूप ही समझना चाहिये। क्योंकि वह भी अपनी आत्मासे कम फलों और कर्मोंका अत्यंत मिन्न रूपसे अनुभव किया करता है । और समझता है कि मैं इन सम्पूर्ण परभावोंसे सर्वथा रहित चिन्मात्र हूं । इसका विशेष खुलासा ठक्कुर अमृतचंद्र आचार्यने अपनी बनाई हुई समयसारकी टीकामें किया है । अतएव विशेष जिज्ञासुओंको यह विषय वहांपर देखनी चाहिये ।
नामादिक छह निक्षेपों की अपेक्षासे प्रत्याख्यान छह भागों में विभक्त है । इसका पांच पद्योंमें व्याख्यान करने की इच्छा से सबसे पहले उसका लक्षण बताते हैं:
निरोद्धुमागो यन्मार्गच्छिदो निर्मोक्षुरुज्झति ।
नामादीन् षडपि त्रेधा तत्प्रत्याख्यानमामनेव ॥ ६५ ॥
मुमुक्षु भव्य पाप कर्मोंका निवारण करने के लिये रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग के विरोधी - नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल और भावरूप छद्दों अयोग्य विषयोंका जो परित्याग किया करता है उसीको प्रत्याख्यान कहते हैं । जैसा कि कहा भी है कि:
酸酸鹽豬雞湯麵麵號號線蒸鮮魚湯雞雞隊除
धर्म --
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