________________
नामादीनामयोग्यानां षण्णां त्रेधा विवर्जनम् । प्रत्याख्यानं समाख्यातमागाम्यागोनिषिद्धये ।।
___ अर्थात्-जिनसे पाप कर्मोंका संचय होता है ऐसे नामोंका मन वचन और कायके द्वारा न स्वयं उच्चारण करना न दूसरोंसे कराना और न उसकी अनुमोदना करना इसको नामप्रत्याख्यान कहते हैं । अथवा "प्रत्याख्यान " इस नाममात्रको भी नामप्रत्याख्यान कहते हैं। द्रव्योंके ऐसे प्रतिरूप मन वचन कायमे न बनाना न बनबाना और न उनकी अनुमोदना करना जो कि पापबन्धके कारण हैं, और जिनसे कि मिथ्यात्वादिकी प्रवृत्ति हुआ करती है उसको स्थापनाप्रत्याख्यान कहते हैं । अथवा प्रत्याख्यानस्वरूप परिणत प्रतिबिम्मको स्थापना प्रत्याख्यान कहते हैं। किंतु यह सद्भावरूप ही हो सकता है। जिन द्रव्योंके सेवन करनेसे पापका बंध हो सकता है उनको सावद्य द्रव्य कहते हैं। ऐसे सावद्य द्रव्योंका तथा तपके लिये छोडे हुए निरवद्य द्रव्योंका भी सेवन या मोजन न करना न कराना और न उसकी अनुमोदना करना इसको द्रव्य प्रत्याख्यान कहते हैं। अथवा प्रत्याख्यान शास्त्रके जाननेवाले किन्तु अनुपयुक्त आत्माके शरीर मावी और कर्मनोकर्मरूप तद्वयतिरिक्त मेदोंको भी द्रव्य प्रत्याख्यान कहते हैं। असंयमादिके कारणभूत क्षेत्रका त्याग करना, दूसरोंसे कराना, या करते हुओंका अनुमोदन करना, इसको क्षेत्रप्रत्याख्यान कहते हैं । अथवा जिस प्रदेश में प्रत्याख्यान किया गया हो उसको भी क्षेत्रप्रत्याख्यान कहते हैं । इसी प्रकार असंयमादिके कारणभृत कालको छोडना छुडाना और छोडते हुएका अनुमोदन करना इसको कालप्र. त्याख्यान कहते हैं । अथवा जिस समय में प्रत्याख्यान किया जाय उसको भी कालप्रत्याख्यान कहते हैं। तथा मिध्यात्वादि भावोंका मन वचन और कायके द्वारा परित्याग करना कराना और करते हुएका अनुमोदन करना इसको भाव प्रत्याख्यान कहते हैं । अथवा प्रत्याख्यानशास्त्रके जाननेवाले उपयुक्त आत्मा उसके ज्ञान या प्रदेशोंको भी भावप्रत्याख्यान कहते हैं।
इस श्लोक में निरोधमागः ऐसा वाक्य जो लिखा है सो सामान्य निर्देश समझना चाहिये । इसीलिये इसमें आचार टीका कारके किये हुए प्रत्याख्यानके लक्षणका भी संग्रह हो जाता है । आचार टीकामें प्रत्याख्यान
मध्याय
७९२