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अनगार
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व्रतादाने च पक्षान्ते कार्तिके फाल्गुने शुचौ ।
स्यात्पतिक्रमणा गुर्वी दोषे संन्यासने मृतौ ॥ अर्थात बृहत्प्रतिक्रमणाएं सात समयों में हुआ करती हैं, व्रत ग्रहण करते समय, पक्षके अन्त में, कार्तिक अन्तमें, फाल्गुनके अन्तमें, आषाढके अन्तमें, किसी प्रकारका दोष लग जानेपर, और संन्यास मरणके समय।
इस प्रकार ये सात वृहत्पतिक्रमणाएं हैं । लघुप्रतिक्रमणाओंके आह्निक आदि सात मेद बताये हैं। इनके सिवाय आगममें निषिद्धिकेयर्यादिक और भी प्रतिक्रमणाओंके जो भेद बताये हैं उनका आह्निकादिकमें ही अन्तर्भाव हो जाता है। क्योंकि वे लघु हैं, उनके भी भक्ति उच्छासदण्डकका पाठ अल्प है।
जहाँपर मुनिजन उठा बैठा आदि करते हैं उस स्थान विशेष को निषिद्धिका कहते हैं, और उस स्थानमें चलने फिरने आदिका नाम निपिद्धिकया है। दीक्षा ग्रहण करनेके अनन्तर दो महीना तीन महीना या चार महीनामें अपने हाथसे केवोंके उखाडनेको लोच कहते हैं । अशन नाम भोजन अर्थात् गोचरवृत्तिका है। दुःस्वम आदि अतीचारोंको दोष कहते हैं। इन चार निमित्तोंकी अपेक्षासे जो निन्दा गहो आदि की जाती है उन्हीको क्रमसे निषिद्धिकागमन प्रतिक्रमणा, लुचप्रतिक्रमणा, गोचारप्रतिक्रमणा, और अतीचार प्रतिक्रमणा कहते हैं। ये चारो ही प्रतिक्रमणाएं लघु हैं। इसलिये इनका ऐर्यापथिक आदि प्रतिक्रमणाओंमें अन्तभाव होजाता है। इनमेंस पहली मार्गातीचार प्रतिक्रमणामें
और पिछली रात्रिप्रतिक्रमणामें तथा बीचकी दोनों आह्निकप्रतिक्रमणामें अन्तर्भूत होती हैं। इस कथनसे अर्थात इलोको अन्तर्भावकेलिये लघुत्व हेतु देकर ग्रन्थकारने यहांपर लघुप्रतिक्रमणाएं भी सात होती हैं यह बताया है। जैसा कि कहा भी है कि:
लुच रात्री दिने मुक्त निषेधिकागमने पथि।
स्यात् प्रतिक्रमणा लघ्वी तथा दोषे तु सप्तमी ॥ लोच रात्रि दिन भोजन निषेधिकागमन मार्ग और दोष अर्थात् अतीचार इन सात विषयोंकी अपेक्षा लघुप्रतिक्रमणाओंके भी सात भेद हैं।
अध्याय
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