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बनगार
समयके साधुओंको निश्चित रूपसे सम्पूर्ण प्रतिक्रमण करने ही चाहिये, चाहे ईर्या गोचर दुःस्वप्न आदिके विषयमें उन्हे दोष लगे या न लगे। बीचके बाईस तीर्थकरोंके समय के साधुओंका चित्त चंचल नहीं हुआ करता और उनकी बुद्धि भी दृढ हुआ करती है. तथा उनमें मृढता भी विशेष नहीं पाई जाती। अत एव उनसे जब कोई अपराध बन जाता है तब वे उसकी गर्दा आदि करते हैं। किंतु आदि तीर्थंकर और अन्तिम तीर्थकरके समय के साधु वैसे नहीं होते, उनमें मोह और चित्तकी चंचलता रहा करती है, अत एव वे सब प्रतिक्रमण करते हैं।
निम्न श्रेणीके मुमुक्षुओंको प्रतिक्रमण आदि करने में लाभ है और न करनेमें हानि है। किंतु जो उच्च पदपर पहुंच गये हैं उन मुमुक्षुओंको इस प्रतिक्रमण आदिके करने में हानि ही है । इसी बातका उपदेश देते है:
प्रतिक्रमणं प्रतिसरणं परिहरणं धारणा निवृत्तिश्च ।
निन्दा गर्दा शुद्धिश्चामृतकुम्भोन्यथापि विषकुम्भ: ॥६३॥ यहांपर प्रतिक्रमण शब्दसे द्रव्य प्रतिक्रमणका ग्रहण किया है। अतएव दण्डकोंका पाठ करना ही प्रकृतमें उसका लक्षण समझना चाहिये । गुणोंमें प्रवृत्ति करनेको प्रतिमरण कहते हैं । दोषोंसे पराङ्मुख रहनेका नाम परिहरण है। चित्तक स्थिर रखनेका नाम धारणा है। दूसरी तरफ चित्तके चले जानेपर उधरसे पुनः उसके लौटानेको निवृत्ति कहते हैं। निन्दा और गर्दा शब्दका अर्थ पहले बता चुके हैं। प्रायश्चित्त आदिके द्वारा अपने शोधन करनेको शुद्धि कहते हैं।
निम्नपद में रहनेवाले मुमुक्षुओंकेलिये ये प्रतिक्रमणादि आठो ही कार्य अमृतघटके समान है। क्योंकि जिस प्रकार अमृतका पान करनेसे चित्तमें प्रसन्नता और आह्लाद हुआ करता है उसी प्रकार इन क्रियाओंके करनेसे भी परम प्रसन्नता और आह्लाद प्राप्त हुआ करता है । अत एव निम्नपदमें इनके करनेसे लाभ ही है। तथा न करनेसे हानि है । क्योंकि इनके न करनेपर मोह और संताप आदि उत्पन्न हुआ करते हैं जो कि पापबन्धके कारण हैं । इसलिये उस अवस्थामें इनका न करना विषके घटके समान ही समझना चाहिये ।
अध्याय
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