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धर्म
बनगार
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.यहाँपर अपि शब्दका जो पाठ किया है उससे यह बात भी जाहिर करदी है कि ऊपरके पद में पहुंचकर प्रतिक्रमण आदिका करना भी विषकुम्भके समान है । क्योंकि वहां पर विशेषतया संवर और निर्जराके कारणोंमें ही प्रवृत्ति होती है, पुण्य बंधके कारणोंमें नहीं। किंतु इस प्रतिक्रमण आदिके द्वारा उस पुण्यकी प्राप्ति होती है जो कि वैभवको उत्पन्न कर क्रमसे मद और मतिमें पोई उत्पन्न करदिया करता है । जैसा कि कहा भी है कि
पुण्णेण होइ विहओ विहवेण मओ मरण मइमोहो।
मइमोहेण य पावं तं पुण्ण अझ मा होउ ।। पुण्यके उदयसे वैभवकी प्राप्ति होती है। और वैभवसे मद तथा मतिमें मोह उत्पन्न हुआ करता है। मोहके निमित्तसे पापका संचय हुआ करता है । अत एव इस पापबन्धका कारण पुण्य ही हमको नहीं चाहिये । . यहांपर यदि यह कोई शंका करे कि इस पद्यमें । आम) छन्दोभङ्ग है । क्योंकि प्रतिक्रमण इस शब्दमें क्र इस संयुक्ताक्षरके आगे रहनेसे ति यह दीर्घ होजाता है । सो ठीक नहीं है। क्योंकि यहांपर उसका शिथिल उच्चारण करना अभीष्ट है, जैसा कि अनेक स्थलोंमें पाया भी जाता है । यथाः
वित्तैर्येषां प्रतिपदमियं पृरिता भूतधात्री, निर्जित्यैतद्भवनवळयं ये विभुत्वं प्रपन्नाः । तेप्येतस्मिन् गुरुवचढदे बुद्धदस्तम्बलीलां,
धृत्वा धृत्वा सपदि विलयं भूभुजः संप्रयाताः ।। यहाँपर "गुरु वचहदे बुदद " इस पदमें ह इस संयुक्ताक्षरके आगे पडे रहनेपर भी चको दीर्घ मानकर अथवा ह इस संयुक्ताक्षरके आगे रहते हुए भी वु को दीर्घ मानकर छन्दोभङ्ग नहीं होता । इसी तरह " भ्रमति भ्रमरकान्ता नष्टकान्ता वनान्ते" इसमें भ्रके पडे रहने पर भी ति दीर्घ नहीं माना जाता । तथा “शत्रो
रपत्यानि प्रियंवदानि नोपेक्षितव्यानि बुधैः कदाचित् " यहाँपर प्रिके पडे रहनेपर भी नि यह दीर्घ नहीं माना गया PL है। "जिनवर प्रतिमानां भावतोऽi नमामि" इसमें भी प्रक पडे रहते हुए भी रको दीर्व मानकर छन्दोभङ्ग
बध्याय