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अनगार
अर्थात ये सम्पूर्ण कर्म जो कि उदयमें आ रहे हैं वे सब मोहकी लीलासे ही प्रकट होने वाले हैं। अत एव इन सबको आलोचना करके मैं सदा कर्मरहित चैतन्यस्वरूप अपनी आत्मामें अपने आत्मस्वरूपसे ठहरा हुआ हूं।
इसी तरह भविष्यकोका और उनके फलोंका प्रत्याख्यान करने केलिये भी विचार करना चाहिये । यथाः"मैं अपने मन वचन और कायके द्वारा कोई भी दुष्कर्म न करूंगा और न किसीसे कराऊंगा तथा कोई करता होगा तो उसकी अनुमोदना मी न करूंगा।" यहाँपर भी क्रमसे मन वचन कायके संयोगी असंयोगी भंग और उनंचाप्त क्रियापद जोडलेने चाहिये । और इस तरह प्रत्याख्यान करके आत्मरूपमें लीनता की प्रवृत्ति करनी चाहिये। जैसा कि कहा भी है किः -
प्रत्याख्याय भविष्यत्कर्म समस्तं निरस्तसंमोहः।।
आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ।। मेंने मोहकर्मका निरास कगया है, इसी लिये अब आगे संचित होनेवाले सम्पूर्ण कर्मोंका भी प्रत्या ख्यान करके कमरहित चैतन्य स्वरूप अपनी आत्मामें आत्मस्वरूपके द्वारा सदा लीन रहने के लिये प्रवृत्त होता है ।
यहॉपर भूत वर्तमान और भविष्यत कर्मों में से एक एकका क्रमसे प्रतिक्रमण आलोचन और प्रत्याख्यान किस तरह करना चाहिये सो बताया । किंतु समुदायरूपसे भी तीन काल सम्बन्धी समस्त कर्मोंका परित्याग करके तथा मोह रहित होकर कर्मजनित विकारोंसे रहित आत्मामें लीन होने का अभ्यास करना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
समस्तमित्येवमपास्य कर्म त्रैकालिकं शुद्धनयावलम्बी।
विलीनमोहो रहित विकारश्चिन्मात्रमात्मानमथावलम्बे ॥ शुद्धनिश्चयनयका अबलम्बन लेकर सम्पूर्ण त्रिकालसम्बन्धी कर्मीको पूर्वोक्त रीतिसे छोडकर और मोहरहित रोकर मैं उन कर्मजनित विकारों से सर्वथा रहित चेतनामय आत्मस्वरूप में लीन हो रहा हूं।
"मैं मतिज्ञानावरण कर्मके फलका भोक्ता नहीं हूं, केवल अपने चैतन्यस्वरूपका ही अनुभव करनेवाला हूं।" इसीप्रकार "मैं श्रुतज्ञानावरण कर्मके फलका मोक्ता नहीं हूं, अवधिज्ञानावरण कर्मके फलका भी मैं भोक्ता
अध्याय