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अनगार
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नहीं हो सकते । जिसीव नहीं तो उसका
प्रेणा से नहीं किंतु
. भावार्थ-कर्मोंका फल-पुण्यकर्मके उदयसे प्राप्त होनेवाला सुख तत्काल ही रमणीय है, सेवन करते समय ही अच्छा मालुम होता है, किंतु उसका परिपाक कटु ही है। क्योंकि उसका सेवन करनेसे जो नवीन काँका बन्ध होता है उसके निमित्तसे परलोकमें तो दुःखकी प्राप्ति होती ही है, किंतु इस भवमें भी उससे दुःखोंकी ही प्राप्ति हुआ करती है। यहां उसके साथ अनेक दुःखोंका मिश्रण भी रहा ही करता है। अथवा वह स्वयं ही दुःख रूप है। इसके सिवाय वह कर्मों के उदय से प्राप्त होता है इसलिये पराधीन भी है। अत एव इस सुखके निमितसे भव्योंको वास्तविक तृप्ति नहीं हो सकती। जो इसके सेवनकी अभिलाषा मी रखते हैं वे भी वस्तुतः सुखी नहीं हो सकते । जिस प्रकार कोई रोगी मनुष्य दाहसे व्यथित होनेपर पानीके पीने की इच्छा तो रक्खे किंतु वैद्यके कथनानुसार अपाय होनेके भयसे नीवे नहीं तो उसको वस्तुतः सुखी नहीं कह सकते । सुखी वही कहा जासकता है कि जिसको उसके पीने की इच्छा ही नहीं है । जो किसीकी प्रेरणा से नहीं किंतु स्वतः ही जलके विषयमें तृप्त है। उसी प्रकार जो भव्य अपने पूर्व संचित कमौके विषमय फलोंको स्वतः तृप्त होनेसे नहीं भोगता वह वास्तविककर्मजनित सुखोंसे सर्वथा विपरीत आत्मस्वरूप-स्वाधीन जो सेवन करते समय भी मधुर मालुम पडती है और जिसका परिपाक भी मधुर है, एवं जिसके साथ में किसी दूसरे दुःख का रंचमात्र भी संसर्ग नहीं पाया जाता ऐसी अनंत सुखमय अवस्थाको प्राप्त हुआ करता है । और भी कहा है कि:
अत्यन्तं भावयित्वा विरतिमविरतं कर्मणस्तत्फलाच्च, प्रस्पष्टं नाटयित्वा प्रलयनमखिलाज्ञानसंचेतनायाः । पूर्ण कृत्वा स्वभावं स्वरसपरिगतं ज्ञानसंचेतना स्वां,
सानन्दं नाटयन्तः प्रसमरसमिताः सर्वकालं पिबन्तु ।। कर्मोंसे और उनके फलोंसे आत्मा, सर्वथा भिन्न है, इस बात का निरंतर और अच्छी तरहसे अनुभव करके जिन्होने सम्पूर्ण अज्ञान चेतनाका भले प्रकार नाश करदिया है, तथा उसका नाश करके अपने परिणामोंको जिन्होने आत्मानुभवके रसकी तरफ पूर्णतया लगा दिया है, और इसी लिये जो अपनी आत्मिक ज्ञानचेतनाके
अध्याय