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अनगार
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निन्दागहलोचनाभियुक्तो युक्तेन चेतसा ।
पठेद्वा शृणुयाच्छुद्धये कर्मनान्नियमान्समान् ॥ ६ ॥ अपनेसे जो दोष पनगया हो उसकी स्वयं अपने मनमेंही, हाय मुझसे यह बडा अनर्थ होगया, ऐसी भावना करने को निन्दा कहत हैं। यदि यह भावना गुरुके समक्ष कीजाय तो उसको गर्दा कहते हैं। तथा अपने दोषोंका गुरुसे निवेदन करदेनको आलोचन कहते हैं। साधुओंको प्रतिक्रमणके समय ये दीनो ही पहले करने चाहिये । पीछे विपुल काँकी निर्जराकेलिये अथवा सम्पूर्ण अतीचारोंकी शुद्धिकेलिये कर्मोंका नाश करनेवाले समस्त नियमों-दण्डकोंका स्वयं पाठ करना चाहिये, अथवा आचार्यादिसे सुनना चाहिये ।
भावार्थ-पहले तो साधुओंको भावप्रतिक्रमण में प्रवृत्त होना चाहिये । किन्तु यह प्रवृत्ति स्वयं निन्दा गहों और आलोचना करनेसे ही हुआ करती है । जैसा कि कहा भी है कि:--
आलोयण निंदणगरहणाहिं अब्भुटिओ अकरणाए। .
तं भावपडिक्कमणं सेसे पुण दव्वदो भणिदं ॥ अर्थात् प्रतिक्रमण दो प्रकारका है, एक द्रव्यरूप दूसरा भावरूप। आलोचना निन्दा और गह द्वारा दो. पोंके दर करनेमें प्रवृत्त होनेको भाव प्रतिक्रमण, और शेष क्रियाओंके करनेको द्रव्यप्रतिक्रमण कहते हैं। इनमेंसे पहले भावप्रतिक्रमण करके पीछे द्रव्यरूप प्रतिक्रमण करना चाहिये । अर्थात् निन्दादिके अनन्तर व्यवहारसे अविरुद्ध प्रतिक्रमण सम्बन्धी दण्डकोंक पाठका स्वयं उच्चारण करना चाहिये, अथवा आचार्यादिके मुखसे उसको सुनना चाहिये । क्योंकि उपयुक्त मनपे; अर्थ की तरफ ध्यान देकर यदि यह पाठ किया जाय या सुनाजाय तो वह सम्पूर्ण कमीका नाश कर देता है । जैसा कि कहा भी है कि:
भावयुक्तोर्थतनिष्ठः सदा सूनं तु यः पठेत् । स महानिर्जरार्थाय कर्मणो वर्तते यतिः॥
अध्याय