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खनगार
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बध्याय
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सकती। और इस ध्यानकी निश्चलता निर्विकल्प मनसे ही हो सकती है । तथा मनमें निर्विकल्पता व्यवहारस्तुति के द्वारा ही उत्पन्न हुआ करती है । अत एव जो मुमुक्षु अपना अभीष्ट सिद्ध करना चाहते हैं उन्हें पहले व्यवहार स्तुति द्वारा अपन मन शुद्ध चितवरूपके ध्यानमें लीन होने योग्य बनालेना चाहिये। तभी वे शुद्धात्माके ध्यान में स्थिर होकर आत्मस्वरूप निश्चयस्त्नत्रय को प्राप्त कर सकते हैं।
इस प्रकार चतुर्विंशतिस्तव रूप आवश्यकका वर्णन करके, अब क्रमानुसार ग्यारह पद्यों में वन्दनाका व्याख्यान करते हैं । जिसमें सबसे पहले वन्दनाका लक्षण बताते हैं:
वन्दना नतिनुत्याशीर्जयवादादिलक्षणा ।
भावशुद्धया यस्य तस्य पूज्यस्य विनयक्रिया ॥ ४६ ॥
अर्हत सिद्ध आचार्य आदिकोंमेंसे अथवा वृषभादि चौबीस तीर्थकरों में से किसी भी पूज्य आत्माका विशुद्ध परिणामोंसे नमस्कार स्तुति आशीर्वाद जयवाद आदि स्वरूप विनय कर्म करनेको वन्दना कहते हैं। जैसा कि कहा भी है कि:
कर्मारण्यहुताशानां पञ्चानां परमेष्ठिनाम् । प्रणतिर्वन्दनाऽवादि त्रिशुद्धा त्रिविधा बुधैः ॥
अर्थात् - कर्मरूप अरण्यको भस्म करनेके लिये अग्निके समान पांचों परमेष्ठियों को नमस्कार करनेका नाम बन्दना है। इसके मनवचन कायकी शुद्धिकी अपेक्षासे तीन भेद माने हैं ।
ऊपरके श्लोक में विनय कर्मका नाम वन्दना बताया है । उसमें यह नहीं मालुम होता कि विनय किसको कहते हैं । अत एव उसका स्वरूप बताते हैं:
हिताहितातिलुप्त्यर्थं तदङ्गानां सदाञ्जसा ।
यो माहात्म्योद्भवे यत्नः स मतो विनयः सताम् ॥ ४७ ॥
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