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अनगार
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___ सरिप्रवर्युपाध्यायगणिस्थविररानिकान् ।
यथार्ह वन्दतेऽमानः संविनोऽनलसो यतिः ॥ ५ ॥ दीक्षादेनेवाले अथवा अनुचित कार्यसे रोकनेवाले यद्वा किसीको संघमें सम्मिलित करने या पृथक् करने की व्यवस्था देनेवालोंको सूरी कहते हैं । जो आचार्यकी अज्ञाका संघके साधुओंसे पालन कराते हैं उनको प्रवर्ती या प्रवर्तक कहते हैं। जिनके पास मुनिजन श्रुतका अध्ययन किया करते हैं उनको उपाध्याय कहते हैं । और गणकी रक्षा करनेवाले तथा राजसमादिमें कुशल साधुओंको गणो कहते हैं। इसी प्रकार मर्यादा रखनेवालोंको स्थावर और रत्नत्रयके अधिकतया धारण करनेवालोंको रानिक कहते हैं । इन सभीका संसारसे भीरु संयमी साधुओंको गर्वरहित होकर और आलस्य छोडकर यथा योग्य विनयकर्म करना चाहिये । वन्दनाका विषयविभाग करनेकेलिये किसके परोक्षमें किसकी वन्दना करनी चाहिये सो बताते हैं:
गुरौ दुरे प्रवर्त्याद्या वन्द्या दूरेषु तेष्वपि ।
संयतः संयतैर्वन्द्यो विधिना दीक्षया गुरुः॥५१॥ गुरु-आचार्य यदि देशान्तरको गमन आदि करके चले गये हों, प्रत्यक्ष उपस्थित न हो तो उनके परोक्षमें कर्मकाण्डमें बताई हुई विधि के अनुसार क्रमसे प्रवर्तकादिकी संयमियों को वन्दना करनी चाहिये । और पदि प्रवर्तकादिक भी उस समय उपास्थत न हों तो जो साधु अपनेस दीक्षामें बड़ा है उसकी मुनियों को | वन्दना करनी चाहिये । संयमी श्रावक ओर मुनियों को जिनकी वन्दना न करनी चाहिये उनका उल्लेख करते हैं:
श्रावकेणापि पितरौ गुरू राजाप्यसयताः। कुलिङ्गिनः कुदेवाश्च न वन्द्याः सोपि संयतः॥ ५२॥
अध्याय
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